शिव की
नीलकंठ भी कहते हैं। कथा है कि समुद्र मंथन में जब सर्वप्रथम अहंता की वारुणी और
सर्प का विष निकला तो शिव ने उस हलाहल को अपने गले में धारण कर लिया, न उगला और न
पीया। उगलते तो वातावरण में विषाक्तता फैलती, पीने पर पेट में कोलाहल मचता।
मध्यवर्ती नीति यही अपनाई गई।
शिक्षा यह है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात् करें, न ही विक्षोभ
उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कंठ तक ही प्रतिबंधित रखे। अर्थात हमें बुराई को न तो
अपने अंदर प्रवेश करने देना चाहिए और न ही उसे समाज में बढ़ने देना चाहिए|