भगवान दत्तात्रेय | भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु कौन कौन थे? Dattatreya Ke 24 Guru Kaun The?

भगवान दत्तात्रेय | भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु कौन कौन थे? Dattatreya Ke 24 Guru Kaun The?

दत्तात्रेय भगवान कौन है?

भगवान दत्तात्रेय,महर्षि अत्रि और उनकी सहधर्मिणी अनुसूया के पुत्र थे। हिंदू धर्म में भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश का एकरूप माना गया है। धर्म ग्रंथों के अनुसार श्री दत्तात्रेय भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं। वह आजन्म ब्रह्मचारी और अवधूत रहे इसलिए वह सर्वव्यापी कहलाए। हिंदू धर्म के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के लिए ही भगवान दत्तात्रेय ने जन्म लिया था, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का स्वरूप भी कहा जाता है।

दत्तात्रेय का जन्म कब हुआ?

पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि दत्त का जन्म वर्तमान मन्वंतर के आरंभ में प्रथम पर्याय के त्रेता युग में हुआ। मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्रपर सायंकाल भगवान दत्तात्रेयका जन्म हुआ| मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को भगवान दत्तात्रेय की जयंती का पर्व मनाया जाता है। इसी दिन भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ था।

दत्तात्रेय भगवान के कितने गुरु थे?

दत्तात्रेय भगवान के 24 गुरु थे?

 

दत्तात्रेय भगवान

दत्तात्रेय के 24 गुरु कौन थे?

भगवान दत्तात्रेय से एक बार राजा यदु ने उनके गुरु के संबंध में पूछा तो उन्होंने कहा कि वैसे आत्मा ही मेरा गुरु है और मैने चौबीस व्यक्तियों को गुरु मानकर शिक्षा ग्रहण की है।

ये चौबीस गुरु हैं: (1) पृथ्वी (2) पर्वत (3) वृक्ष (4) वायु (5) जल (6) अग्नि (7) आकाश (8) सूर्य (9) चन्द्रमा (10) पक्षी (11) अजगर (12) मधुमक्खी (13) भौंरा (14) पतंगा (15) चील (16) हिरन & मछली (17) हाथी (18) भील (19) बाण बनाने वाला (20) वेश्या (21) कन्या (22) बालक (23) समुद्र (24) मकड़ी


भगवान दत्तात्रेय के अवतार के कितने अवतार है?

ऐतिहासिक युग में, दत्त देवता के तीन अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ, श्री  नृसिंहसरस्वती और मणिकप्रभु हुए । श्रीपाद श्रीवल्लभ भगवान दत्तात्रेय  के पहले अवतार थे । श्री नृसिंह सरस्वती उनके दूसरे और मणिकप्रभु तीसरे अवतार थे । चौथे अवतार श्री स्वामी समर्थ थे । यह चार पूर्ण अवतार हैं|

भगवान दत्तात्रेय के परिवार का निहित अर्थ क्या है?

यदि आप भगवान दत्तात्रेय के रूप को ध्यानपूर्वक देखें तो आप उन्हें कभी भी अकेला नहीं पाएंगे । उनके पीछे एक गाय और आसपास चार कुत्ते देखे जा सकते हैं । हम यह भी देखते हैं कि भगवान दत्तात्रेय एक विशाल उदुंबर (गूलर) के वृक्ष के नीचे खडे हैं । अब हम इन तीन पहलुओं के बारे में समझते हैं ।

(1)  गाय (पीछे की ओर खडी) : पृथ्वी एवं कामधेनु (इच्छित फल देनेवाली)

(2)  चार कुत्ते : चार वेद

(3)  उदुंबर का (गूलर का) वृक्ष : दत्त का पूजनीय रूप; क्योंकि उसमें दत्ततत्त्व अधिक मात्रा में रहता है ।

दत्तात्रेय के कंधे पर एक झोली का क्या अर्थ है?

झोली अहं नष्ट होने का प्रतीक : दत्तात्रेय के कंधे पर एक झोली होती है । इसका भावार्थ निम्नानुसार है – झोली मधुमक्षिका का (मधुमक्खी का) प्रतीक है । मधुमक्खियां जिस प्रकार विभिन्न स्थानों पर जाकर मधु एकत्र करती हैं एवं उसका भंडारण करती हैं, उसी प्रकार दत्त घर-घर जाकर झोली में भिक्षा एकत्र करते हैं । घर-घर घूमकर भिक्षा मांगने से अहं शीघ्र अल्प होता है; इसलिए झोली अहं नष्ट होने का भी प्रतीक है ।

भगवान दत्तात्रेय के 24 'गुरु' कैसे बने? दत्तात्रेय के 24 गुरु का वर्णन

एक बार ज्ञान लाभ की इच्छा से भगवान दत्तात्रेय उत्तर दिशा की ओर चल दिये।

घर से निकलते ही उन्होंने देखा कि अन्तरिक्ष तक विशाल भूमण्डल फैला हुआ है। वे सोचने लगे, यह पृथ्वी माता कितनी क्षमाशील है। स्वयं चरणों में रहते हुई भी समस्त जीव-जन्तुओं को सब प्रकार की सुविधाएं देती रहती है, ऐसी परोपकारिणी पृथ्वी मेरी गुरु है। इससे मैंने क्षमा का गुण सीखा। हे पृथ्वी! मैं तुझे नमस्कार करता हूँ, तेरा शिष्य हूँ।

आगे चलकर उन्होंने पर्वत देखा। वह अपने प्रदेश में अनेक प्रकार के वृक्ष, धातुएं, रत्न, नदी उत्पन्न करता था और उस समस्त उत्पादन को लोक-सेवा के लिये निःस्वार्थ भाव से दूसरों को दे देता था। ऐसे उदार, परोपकारी से उपकार का गुण सीखते हुए ऋषि ने उसे भी अपना गुरु बना लिया।

कुछ दूर और चलने पर उन्हें एक विशाल वृक्ष दिखाई पड़ा। यह वृक्ष धूप, शीत को सहन करता हुआ एकाग्र भाव से खड़ा था और अपनी छाया में असंख्य प्राणियों को आश्रय दे रहा था। पत्थर मारने वालों को फल देना इसका स्वभाव था। ऋषि ने कहा- हे उदार वृक्ष, तू धन्य है! मैं तुझे गुरु बनाता हुआ प्रणाम करता हूँ।

वृक्ष को छोड़कर आगे चले, तो शीतल सुगन्धित वायु ने उनका ध्यान आकर्षित किया। वे सोचने लगे-यह पवन क्षण भर भी बिना विश्राम लिये प्राणियों की जीवन-यात्रा के लिये बहता रहता है। अपने पोषक द्रव्य उन्हें देता है और उनकी दुर्गन्धियों को अपने में ले लेता हैं इसी के आधार पर समस्त जीव जीवित हैं, तो भी यह कितना निरभिमान और कर्त्तव्य-परायण है। ऋषि ने शिष्य-भाव से वायु को भी नमस्कार किया।

आकाश, जल और अग्नि की उपयोगिता पर उन्होंने ध्यान दिया, तो उनके मन में बड़ी श्रद्धा उपजी। यह तत्व जड़ होते हुए भी चैतन्य मनुष्य की अपेक्षा कितने तपस्वी, कर्मवीर, परोपकारी और त्यागी है। इनका जीवन एकमात्र उपकार के लिये ही तो लगा हुआ है। दत्तात्रेय ने इन तीनों को भी गुरु बना लिया।

अब उनकी निगाह सूर्य और चन्द्रमा पर गई। यह अपने प्रकाश से विश्व की कितनी आवश्यकताएं पूर्ण करते हैं। बेचारे स्वयं दिन-रात घूम-घूम कर दूसरों के लिये प्रकाश, गर्मी और शीतलता जैसी अमूल्य वस्तुएं उनके स्थानों पर ही बाँटते रहते हैं। वे इस बात की भी प्रतीक्षा नहीं करते कि कोई हमारे पास हमारी सम्पदा को माँगने आवे, तब उसे दान दें। बिना माँगे ही उनका अक्षय सदावर्त सबके घर पर पहुँचता रहता है। ऋषि ने सूर्य और चन्द्रमा भी अपना गुरु मान लिया।

पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष, वायु, अग्नि, जल, आकाश, सूर्य और चन्द्र को गुरु बनाने के बाद वे एक स्थान पर बैठ कर सुस्ता रहे थे कि उन्होंने देखा, सामने एक पेड़ की डाल पर एक चिड़िया अपने बच्चों की मृत्यु से दुःखी होकर प्राण त्याग रही है। जब वह मर गई, तो उसके पति ने भी प्राण त्याग दिये। ऋषि ने सोचा कि साँसारिक पदार्थों पर, धन-संतान पर अत्यधिक मोह करने का परिणाम मृत्यु जैसी वेदना को सहन करना है। उन्हें लगता कि मृत पक्षी मुझे उपदेश कर रहे हैं कि- “संसार के प्रति अपना कर्त्तव्य पालन करना चाहिए, पर उससे झूठा ममत्व बाँध लेने पर बड़ी दुर्गति होती है।” ऋषि ने उस होला नामक पक्षी की शिक्षा स्वीकार की और उस मृतक पक्षी को गुरु बना लिया।

पक्षी की दीक्षा पर वे मनन कर रहे थे कि पास के बिल में एक अजगर सर्प बैठा हुआ दिखाई दिया। वह भारी शरीर के कारण अधिक दौड़-धूप करने में असमर्थ था, इसलिए उसे अक्सर भूखा रहना पड़ता था। जो कुछ थोड़ा-बहुत मिल जाता, उसी से सन्तोष कर लेता अजगर की ओर ध्यान से देखा तो दत्तात्रेय के मन में ऐसे विचार उठे-मानो यह मेरी ओर मुँह करके कह रहा है कि परिस्थितियों के कारण जब हम असमर्थ हों, तो थोड़े में ही संतोष कर लें और न मिलने वाली वस्तु के लिये दुःख न करें। दत्तात्रेय ने उसे भी गुरु-भाव से अभिवादन किया।

ग्यारह गुरु बना लेने पर भी दत्तात्रेय को अपना ज्ञान अपूर्ण ही मालूम हुआ और वे अधिक ज्ञान की खोज में आगे को चल दिये। चलते-चलते एक सुन्दर बगीचा उन्हें मिला जिसमें तरह-तरह के पुष्प खिल रहे थे, अनेक पक्षी गुँजार कर रहे थे, पास ही सुन्दर जलाशय था। शीतल और सुगन्धित वायु से उपवन बड़ा ही रमणीक प्रतीत होता था। कुछ समय यहीं ठहर कर ज्ञान लाभ करने के लिये उसने डेरा डाल दिया और वहाँ की वस्तुओं को जिज्ञासु भाव से देखने लगे।

उसने देखा कि मधुमक्खी संचय का अत्यंत लालच करके फूलों से शहद इकट्ठा कर रही है। उसे न तो स्वयं खाती है और न किसी को देती है, वरन् जोड़ कर रखती जाती है। परिणाम यह होता है कि बहेलिये उस शहद को ले जाते हैं और मधुमक्खी के हाथ पछताना ही रह जाता है।

दत्तात्रेय ने दूसरी तरफ आँख उठाई तो देखा कि सुगन्ध की वासना से कभी तृप्त न होने वाला भौंरा कमल पुष्प में ही कैदी हो जाता है और रात भर बन्धन की पीड़ा सहता रहता है।

इसी प्रकार उन्होंने एक पतंगा देखा जो दीपक की सुन्दरता देख कर ही तृप्त नहीं हो जाता, वरन् उसे अपने पास रखना चाहता है, उस पर अधिकार करना चाहता है। फल यह होता है कि दीपक का तो कुछ नहीं बिगड़ता, पतंग के ही पंख जल जाते हैं।

उन्होंने एक चील को देखा जो अपने घोंसले में बहुत सा माँस जमा करती जाती थी, इसे देख कर बाज आदि अन्य शिकारी पक्षी उसके घोंसले पर टूट पड़े तो सारा संग्रह किया हुआ माँस उठा ले गये।

ऋषि ने एक हिरन देखा जो शिकारियों की वीणा का गाना सुनकर मुग्ध हो रहा था। मोहित देखकर शिकारियों ने उसे पकड़ लिया और मार डाला। इसी तरह उन्होंने आटे के लोभ में मछली को जाल में फंसते और नकली हथिनी के साथ रमण करने की इच्छा करने वाले हाथी को गड्ढे में फंसकर पकड़े जाते देखा।

इस सबको देखकर वे सोचने लगे इन्द्रियों की वासनाओं की गुलामी तथा काम, क्रोध, लोभ मोह के चंगुल में फंसना प्राणों के जीवनोद्देश्य को नष्ट कर देना है। यह शिक्षा उन्हें मधुमक्खी, भौंरे, पतंग, चील, हिरन, मछली और हाथी से प्राप्त हुई इसलिये इन्हें भी उन्होंने अपना गुरु बना लिया।

यहाँ से उठ कर ऋषि आगे चले और देखा कि एक भील परिवार जनशून्य जंगल में रहते हैं और वहाँ भी उसे अन्न-वस्त्र मिलता है। वे सोचने लगे मनुष्य ‘कल क्या खाएंगे इस चिन्ता में मर जाते हैं वे इस भील से सीख सकते हैं कि परमात्मा के भण्डार से हर किसी को नित्य समय भोजन पर भेजा जाता है। उसे भी उसने गुरु मान लिया।

वन्य प्रदेश को पार करते हुए वे एक बड़े नगर में पहुँचे। नगर के बाहर एक बाण बनाने वाला रहता था, दूर-दूर तक उसके शस्त्रों की प्रशंसा थी। उसने सोचा कि इसके बारे में भले जानें कि किस प्रकार यह इतने उत्तम बाण बनाने में प्रसिद्ध हो गया है। वे उसके द्वार पर पहुँचे और देखा कि चारों ओर बड़ा कोलाहल हो रहा है, बाजे और बरातें सामने से निकल रहे हैं, पर वह अपने काम में दत्तचित्त है, किसी की ओर निगाह उठा कर भी नहीं देखता, इसी एक नम्रता के कारण वह इतने उत्तम हथियार बनाने में सफल होता है। उसकी एकाग्रता व शिक्षा लेते हुए उसने उसे भी गुरु भाव से प्रणाम किया।

शहर में घुसने पर उसने देखा कि एक वेश्या बार-बार दरवाजे पर आती है और लौट जाती है । बहुत रात व्यतीत होने पर भी उसे निद्रा नहीं आती। दत्तात्रेय ने उससे पूछा इतनी रात व्यतीत हो जाने पर भी तुम्हें निद्रा क्यों नहीं आती और किस लिए चिन्तित हो रही हो? वेश्या ने उत्तर दिया- महानुभाव किसी धनी मित्र के आने की आशा मुझे व्याकुल किये हुए है। परन्तु कोई आता नहीं। जब तक आशा लगाये बैठी रहती हूँ, तब तक नींद नहीं आती और जब परमात्मा का भार डाल कर निश्चिन्त हो जाती हूँ, तो नींद आ जाती है। दत्तात्रेय ने सोचा कि परमात्मा पर निर्भर न रहना ही दुख का कारण है। इस शिक्षा को लेकर उन्होंने वेश्या को गुरु बना लिया।

आगे चले तो देखते हैं कि एक कन्या रात में घर का काम-काज कर रही है, उसके यहाँ कुछ अतिथि आये हुए हैं, वह संकोचवश अपने काम की खड़बड़ में अतिथियों की निद्रा भंग नहीं करना चाहती, काम करने से चूड़ियाँ तो बजती ही हैं, फिर वह सब चूड़ियों को उतार देती है और केवल एक-एक ही पहने रहती है। बस अब उनका बजना बन्द हो जाता है। ऋषि सोचते हैं कि बहुत इकट्ठा करने से वह बजता है, किन्तु एक की ही साधना करने से एक-एक चूड़ी रह जाने की तरह शोर मिट जाता है और शान्ति मिल जाती है, ऋषि उस लड़की को भी गुरु बना लेते हैं।

आगे उसने एक बालक को देखा जिसमें साँसारिक माया का प्रवेश नहीं हुआ है। और उसका हृदय बिल्कुल पवित्र है। पवित्र हृदय वाला ही सच्चा योगी है, ऐसा समझते हुए उन्होंने उस बच्चे को भी गुरु बनाया।

इतने गुरु बनाते हुए अब वे समुद्र के किनारे पहुँचे और देखा कि उसमें हजारों नदियाँ आकर मिलती हैं और अपरिमित जल बादलों द्वारा चला जाता है। वह इस हानि-लाभ की तनिक भी परवाह नहीं करता और हर परिस्थिति में एक सा बना रहता है। उसने उसे भी गुरु बनाया।

अन्त में उनकी दृष्टि एक मकड़ी पर गई जो अपने मुँह से तार निकालती थी, उस पर चढ़ती थी मनोरंजन करती थी और जब चाहती थी उन तारों को समेट कर पेट में रख लेती थी। इसे देखते ही उनकी आँखें खुल गईं और जिस ज्ञान का अभाव अपने में देख रहे थे वह पूरा हो गया। मकड़ी का कार्य उसने मनुष्य पर घटाया तो उसकी समझ में आया कि जीव सारे प्रपंच अपने अन्दर से ही निकालता है और उन्हीं में उलझा रहता है, किन्तु यदि वह सच्ची इच्छा करे तो इन सारे बखेड़ों को अपने अन्दर ही समेट कर रख सकता है और मुक्ति का अधिकार प्राप्त कर सकता है। जो कुछ भला-बुरा है वह अपने ही अन्दर है। हम खुद ही परिस्थितियों का निर्माण करते हैं किन्तु दूसरों पर अज्ञानवश उसका आरोपण करते रहते हैं। दत्तात्रेय को पूरा सन्तोष हो गया और उन्होंने मकड़ी को चौबीसवाँ गुरु बनाते हुए उसे नतमस्तक होकर प्रणाम किया और आश्रम को वापिस लौट गये।

लोग तलाश करते हैं कि हमें धुरंधर गुरु मिले जो चुटकियों में बेड़ा पार कर दें। परन्तु ऐसे प्रसंग बहुत ही कम आते हैं। कभी-कभी ऐसे उदाहरण देखे भी जाते हैं, तो उनका वास्तविक कारण यह होता है कि उस विषय में शिष्य के पास पर्याप्त संस्कार जमा होते हैं और वे संयोगवश एक ही झटके में खुल जाते हैं। साधारणतः हर व्यक्ति को किसी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये स्वयं ही प्रयत्न करना पड़ता है, गुरु चाहे कितने ही योग्य क्यों न हो, यदि शिष्य का मन दूषित है तो उसे रत्ती भर भी लाभ न मिलेगा। इसके अतिरिक्त यदि शिष्य के हृदय में श्रद्धा है तो उसके लिये मिट्टी के गुरु भी साक्षात सिद्ध रूप होंगे।

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