ज्ञान प्राप्त करने का रहस्य क्या है? Gyan Prapt karne ka Rahasya kya hai?

ज्ञान प्राप्त करने का रहस्य क्या है? Gyan prapt karne ka rahasya kya hai?

सिद्ध योगियों के अधिराज महर्षि दत्तात्रेय को बहुत बड़ी मात्रा में ज्ञान की आवश्यकता थी। वे मनोविज्ञान शास्त्र के धुरन्धर पंडित थे, इसलिये जानते थे कि किसी भी ज्ञान को जान लेने मात्र से वह मन की गहरी भूमिका में उतर कर संस्कारों का रूप धारण नहीं कर सकता। एक-एक पैसे में बिकने वाली पोथियों में सत्य बोलो! धर्म का आचरण करो, लिखा होता है परन्तु इससे कौन सत्यवादी बन गया है? किसने धर्मात्मा का पद पाया है? मन को सच्ची शिक्षा देने के लिये अनेक साधनों की आवश्यकता होती है, इनमें सबसे बड़ा साधन गुरु है। गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। दत्तात्रेय विचार करने लगे-किसे गुरु बनाना चाहिए? वे बहुत से योगी संन्यासियों को जानते थे, अनेक विद्वानों से उनका परिचय था, सैंकड़ों सिद्ध उनके मित्र थे। तीनों लोकों में एक भी तत्वदर्शी ऐसा न था, जो उन्हें जानता न हो और यदि वे उससे ज्ञान सीखने जाते, तो मना कर देने की क्षमता रखता हो। इनमें से किसके पास ज्ञान पाने जावें, इस प्रश्न पर बहुत दिनों तक वे सोचते रहे, पर कोई ठीक निर्णय न कर सके। वे सर्वगुण सम्पन्न गुरु से दीक्षा लेना चाहते थे, पर वैसा कहीं भी कोई उन्हें दिखाई न पड़ रहा था। मनुष्य-शरीर त्रुटियों का भण्डार है। जिसे देखिये, उसमें कुछ न कुछ त्रुटि मिल जायेगी। पूर्णतः निर्दोष तो परमात्मा है। जीवित मनुष्य ऐसा नहीं देखा जाता।

दत्तात्रेय जब सर्वगुण सम्पन्न गुरु न चुन सके तो उनके हृदयाकाश में आकाशवाणी हुई। मन को आत्मा का दिव्य संदेश आया कि ऋषि, मूर्ख मत बनो! पूर्णतः निर्दोष और पूर्ण ज्ञानवान व्यक्ति तुम तीनों लोकों में ढूँढ़ नहीं सकते, इसलिये अपने में सच्चा शिष्यत्व पैदा करो। जिज्ञासा, श्रद्धा और विश्वास से अपने हृदय में पात्रता उत्पन्न करो, फिर तुम्हें गुरुओं का अभाव न रहेगा। दत्तात्रेय के नेत्र खुल गये, उनकी सारी समस्या हल हो गई। ज्ञान-लाभ करने का जो एक मात्र रहस्य है, वह उन्हें आकाशवाणी ने अनायास ही समझा दिया।

लोग तलाश करते हैं कि हमें धुरंधर गुरु मिले जो चुटकियों में बेड़ा पार कर दें। परन्तु ऐसे प्रसंग बहुत ही कम आते हैं। कभी-कभी ऐसे उदाहरण देखे भी जाते हैं, तो उनका वास्तविक कारण यह होता है कि उस विषय में शिष्य के पास पर्याप्त संस्कार जमा होते हैं और वे संयोगवश एक ही झटके में खुल जाते हैं। साधारणतः हर व्यक्ति को किसी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये स्वयं ही प्रयत्न करना पड़ता है, गुरु चाहे कितने ही योग्य क्यों न हो, यदि शिष्य का मन दूषित है तो उसे रत्ती भर भी लाभ न मिलेगा। इसके अतिरिक्त यदि शिष्य के हृदय में श्रद्धा है तो उसके लिये मिट्टी के गुरु भी साक्षात सिद्ध रूप होंगे।

 

 

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