मानव जीवन का मूल लक्ष्य क्या है? | Vedon ka Divya Gyan | Atambal - 004 |

भावार्थ:

आत्मज्ञान प्राप्त करना मानव जीवन का मूल लक्ष्य है | यह संसार कैसे बना ? पदार्थों का आदि कारण क्या है ? शरीर और उसमें शोणित, मांस, अस्थि आदि की विचित्रता और उसकी आत्मा से विलगता आदि का ज्ञान मनुष्य को अवश्य प्राप्त करना चाहिए |

 

सन्देश:

मानव शरीर परमात्मा का सर्वश्रेठ उपहार है | पूर्वजन्मों के पुण्य कर्मों के फलस्वरूप, न जाने कितनी योनियों में भटकने के पश्चात हमें यह शरीर मिला है | संसार मैं किसी भी प्राणी की शरीर रचना इतनी उत्कृष्ट नहीं है | मनुष्य को ईश्वर ने सर्वगुण संपन्न शरीर प्रदान किया है | इसका एक-एक अंग, एक-एक इन्द्रिय कार्यक्षमता में अदुतीय है |

 

अधिकतर मनुष्य इस शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं और इसके आगे सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझते है | हर समय इस शरीर को सजाते-संवारते रहते हैं पर उसमें विधमान आत्मा को बिलकुल भूल जाते हैं | वे यह भूल जाते है कि शरीर तो नश्वर है और आत्मा अमर है | शरीर तो नस्ट हो जाना है, केवल कुछ समय के लिए ही परमेश्वर ने कृपापूर्वक प्रदान किया है | यह तो साधन मात्र है, आत्मा का निवास स्थान है जिसके माध्यम से वह मोक्ष पर अग्रसर होकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है |

 

मानव जीवन का लक्ष्य क्या है ? अधिकतर व्यक्ति स्वर्ग-प्राप्ति को ही एकमात्र लक्ष्य मानते हैं | परन्तु यह स्वर्ग हैं कहाँ ? यह तो केवल हमारी मनः स्थिति द्वारा ही निर्मित होता है | हम स्वयं ही अपने आचरण व परिस्थितियों के आधार पर स्वर्ग या नरक की स्थिति उत्पन्न कर लेते हैं | यह आवश्यक है की जीवन लक्ष्य का स्पष्ट निर्धारण हो जाना चाहिए |

 

जीवन का एक मात्र लक्ष्य हमारे भीतर के अव्यक्त देवता को दृढ़तापूर्वक व्यक्त करना और  वास्तविक सत्ता का साक्षात्कार करना है | एक ही परमात्मा सबके भीतर छिपा है, सबमें ओत-प्रोत है और वही सबकी अंतरात्मा है | वही कर्मफलदाता है और सबके अंदर निवास करता है | प्रत्येक मनुष्य देवता का स्वरुप है केवल परिस्थितिवश वह अपने मार्ग से भटक गया है, भटका हुआ देवता है | इस महान सत्य को जानकार इस देवता को अपने आचरण में उतार लेना ही उसका परम लक्ष्य है |

 

इस आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेना मन, वाणी और कर्म से पवित्र हुए बिना संभव ही नहीं है | मन कभी खाली नहीं रहता है | या तो उसमें पापकर्मो का रस्वादन करने की लालसा रहती है या सत्कर्मो की सुगंध फैलाने की उत्कंठा | मन के एहि विचार उसकी वाणी को प्रभाभित करते हैं और तदनुसार ही उसके कर्म भी होते है | आत्मज्ञान से उसमें पवित्र विचार ही जागृत होते हैं | अहंकार को त्याग कर, 'आत्मवत सर्वभूतेषु' की भावना से संसार के समस्त प्राणियों में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लेने से ही मनुष्य पाप कर्मो से बचा रहता है तथा अपने दैवी  गुणों की अभिवृद्धि करता है |

 

मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है |

 

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