दुःख का प्रमुख कारण क्या है ? | Vedon ka Divya Gyan | Atmabal - 006 |

भावार्थ:

दुःख का प्रमुख कारण है मनुष्य का अज्ञान | इसलिए उससे ऊँचे उठकर आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए | इसी से संपूर्ण कामनाएं शांत होती हैं |

सन्देश:

आज संसार में हर प्रकार की भौतिक समृद्धि और धन-धान्य की प्रचूरता है फिर भी मनुष्य पहले से अधिक दुखी रहता है | इसका मूल कारण है कि वह अपनी वास्तविक जीवन पद्धति को भूल गया है | हमारे जीने का लक्ष्य क्या है अधिकतर लोग इस बात को जान ही नहीं पाते है | धन कमाने की होड़ में मनुष्य पागलों की तरह दौड़-भाग करता है पर इस सबका प्रयोजन क्या है, इसे वह नहीं जानता | जीने का असली मकसद ही पता नहीं बस 'खाओ पीओ और मौज करोका भौतिकवादी सिद्धांत ही सर्वत्र व्याप्त है | यही मनुष्य के दुखों का मूल कारण है |

 

परमात्मा ने ऐश्वर्य के, सुख-संतोष के सभी साधन संजोए हैं परन्तु मनुष्य अपनी कामनाओं व इच्छाओं की पूर्ति में उलझा रहता है और सच्चे सुख का प्राप्त ही नहीं कर पाता है | उसकी आत्मा अमूल्य ज्ञान रत्नों का भण्डार है पर अज्ञानवश मनुष्य उसे पहचान नहीं पाता  और भिखारी के सामान दीन-दुखी जीवन बिताता है | अमृत के सागर में रहकर भी वह प्यास से मारा जा रहा है | 'पानी में मछली प्यासी' की स्थिति है | ऐसी विषम स्थिति से छुटकारा पाकर आनंदमय जीवनयापन का मार्ग तभी मिल सकता है जब आत्मज्ञान हो जाए |

 

आत्मा को पहचानने के लिए प्रबल विवेक शक्ति सुर दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है | आत्मा को अर्थात स्वयं को जानना ही अमरत्व है | शाश्वत शांति प्राप्त करने के लिए आत्मा से अधिक कोई भी किसी को प्यार नहीं करता | कोई भी वस्तु तभी तक हमें प्रिय लगती है जब तक वह हमारी आत्मा के अनुकूल हो | जैसे ह वह प्रतिकूल होती है हम उसे त्यागने को तैयार हो जाते है |

 

आत्मबल का विकास होने पर मनुष्य ऐश्वर्यवान बनता है | वह कभी पर जी नहीं होता है | आत्मबल की सत्ता विजयी है और आत्मबल का आभाव पराजय | मनुष्य जब अपनी आत्मा का परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करके सर्वशक्तिमान अनुभव करने लगता है, तभी उसकी हीनता दूर हो जाती है | भीड़ वह किसी भी कार्य में पराजित नहीं हो सकता है | आत्मबल म्रत्युन्जय हों का साधन है | इसका आश्रय लेकर मनुष्य यशस्वी एवं तेजस्वी हो जाता है तथा उसकी शारीरिक व मानसिक शक्तियों में आश्चर्यजनक व्रद्धि होती है | 

 

मनुष्य जब तक इस तथ्य को नहीं समझ लेता, वह ईश्वर की पवित्र सत्ता से भी जुड़ नहीं पाता है और न ही उसका सहयोग प्राप्त हो पाता है | उसके कर्मों पर किसी का भी नियंत्रण नहीं रहता और लोभ, मोह, स्वार्थ, आदि के मकड़जाल में फंसकर उसका जीवन सर्वनाश के मार्ग पर लुढ़कने लगता है | यह अज्ञान ही उसकी समस्त परेशानियों का स्रोत है, जो उसकी प्रगति में बाधक बनती है |

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