अंतःकरण यदि मलिन और अपवित्र बना रहे तो परमात्मा की उपासना भी फलवती नहीं होगी | अतः ईश्वर की उपासना निष्पाप हृदय से करें |
सन्देश:
संसार में ईश्वर के विषय में लोगों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं | कुछ तो ईश्वर को मानते ही नहीं है | कुछ कहते हैं कि वह यदि है तो दिखाई क्यों नहीं देता है | अरे, बिजली के तारों में से बिजली प्रवाहित होकर प्रकाश उत्पन्न करती है पर वह बिजली हमें कहाँ दिखाई देती है | क्या तारों में बिजली की उपस्थिति को हम नकार सकते है ? ईश्वर ही इस स्रष्टि को पैदा करता है, नियंत्रण करने वाला है, पालन करने वाला है | उसकी उपासना में ही हमारी भलाई है |
परन्तु अधिकतर व्यक्ति परमेश्वर की उपासना करते है भीड़ भी दुखी व कष्ट में रहते हैं | इसका कारन है कि हमारे अंतःकरण कषाय-कल्मषों से भर हैं और पापकर्मो में लिप्त रहते हुए जो उपासना होती है वह तो केवल एक ढोंग मात्र रह जाती है | फिर हमें लाभ कैसे मिल सकेगा ? पवित्रता ही प्रभु कृपा की एकमात्र शर्त है | परमपिता परमेश्वर तो हमारा सर्वश्रेष्ठ मित्र और सखा है पर हम अपने को निष्पाप और उदार बनाकर खुले दिल से तो मिलते ही नहीं फिर अपनी मित्रता के अमृत की हमारे ऊपर वर्षा कैसे हो ?
आज का युग स्वयं केंद्रित और इन्द्रिय परायण है | हम छायाचित्रों की और दौड़ते हैं | एक भयानक थोथेपन ने हमें जकड रखा हैं | 'काम और कांचन' का रोग सर्वत्र भयानक रूप से फैल रहा है | इनके भंवर से लोग छूटना नहीं चाहते लोग भोग विलास में लिप्त है फिर भी सदैव अतृप्त ही रहते हैं | इससे बड़ा दुर्भाग्य भला और क्या होगा भोग स्वयं ही पुकार-पुकार कर कह रहे हैं कि भाई हममें तृप्त करने का सामर्थ्य नहीं परन्तु यह मनुष्य कितना मूर्ख है कि इस तथ्य को भूलकर बार-बार और भी अधिक वेग से उन्हीं भोगो में शरण में जाकर तृप्ति खोजने का असफल प्रयास करता चला जाता है | स्थिति यह हो जाती है 'भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता' अर्थात हम सांसारिक विषय भोगों का उपभोग नहीं कर पाए अपितु उन भोगों को प्राप्त करने की चिंता ने हमको ही भोग लिया | वेद ने भौतिकता को कभी भी त्याज्य नहीं कहा है मगर इस प्रकृति को केवल साधन के रूप में ही प्रयोग करने की बात कही है | इस शरीर के बिना या भौतिक पदार्थों के बिना हमारा निर्वहन असंभव है पर इसको सब कुछ मानकर चलना भी अपने आपको धोखा सेना है |
परोपकार के कार्य और नैतिक आचरण उच्चतर आध्यात्मिक जीवन के सोपान मात्र हैं | चित की शुद्धि के लिए हमें इनमे से होकर जाना पड़ता है | चित को शुद्ध किये बिना उच्चतम ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है | मन के कोनों में जो मैल भरा है, उसे दूर करने के लिए दृढ़ नैतिक आचरण, निस्वार्थ भाव से दूसरो के हित के लिए किये गए कार्य, स्वाध्याय और आध्यात्मिक साधनाये आवश्यक हैं | ह्रदय में दिव्य ज्ञान का प्रकाश इसी रह से अवतरित होता है | इस दिव्यता की आभा का तेज हमारे कषाय-कल्मष सेहन ही नहीं कर पाते और स्वतः ही दूर भाग जाते हैं | उनके रिक्त स्थान की पूर्ती सद्गुणों से होने लगती है |
यह सब दृढ़ आत्मबल से ही संभव है |
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