आशीर्वाद या उपदेश से नहीं बल्कि स्वयं के प्रयास से ही कार्य में सिद्धि मिलती है | Vedon ka Divya Gyan | Atmabal -010 |


भावार्थ:

दूसरों के आशीर्वाद या उपदेश से किसी की ध्येय सीधी कभी नहीं हो सकती इसके लिए स्वयं अपने शरीर, मन और आत्मा से सत्कर्म तथा परोपकार के कार्य करने होंगे |

सन्देश:

भारतीय धर्म और मनुष्य की देवत्व की भावना का जो पतन आज दिखाई दे रहा है उसका मूल कारन यही है कि तथाकथित ब्राह्मणों ने धर्म को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बनाकर जनता के समक्ष इसका विकृत स्वरूप प्रस्तुत किया है | लोगों में यह भावना जड़ जमा रही है कि बस भगवान् की मूर्ति की पूजा करो, ब्राह्मणों की सेवा करो, उन्हें हर प्रकार के दान देकर प्रसन्न रखो तो साड़ी कामनाओं की पूर्ति सहज ही हो जाएगी | ऐसे ब्राह्मण जो धर्म के स्थान पर सदैव अधार्मिक आचरण ही करते है, क्या उपदेश व आशीर्वाद से मनुष्य को भाव बंधनों से मुक्त कर सकते है ?

 

यदि केवल किसी के आशीर्वाद देने मात्र से ही हमारा कल्याण संभव होता तो आज संसार में कोई भी दिन-दुखी नहीं होता | इन सब मिथ्या विचारों से ही मानव जीवन में आज चारों और त्राहि-त्राहि मची हुई है | लोग आलसी और निकम्मे हो गए हैं | स्वयं कुछ करते नहीं और अपनी असफलताओं का दोष भगवान् और भाग्य को देते रहते हैं | 'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाये' वाली स्थिति होती है |

 

वेद वाक्य है कि मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है | जो मनुष्य अपने आपको निर्बल और शक्तिहीन समझता है , संसार की कोई शक्ति उसे बलवान नहीं बना सकती, अतः अपनी भवनों को बदलना अत्यंत आवश्यक होता है | उपदेश व आशीर्वाद से मन में उत्साह व तेजस्विता की भावना जन्म लेती है और तदनुसार उसका जीवन श्रेष्ठता एवं पराक्रम से दीप्तिमान हो उठता है | उसकी अन्तः चेतना इस विशवास से भर उठती है कि आशीर्वाद और उपदेश की शक्ति उसके कार्यों में सफलता प्रदान करने में सदैव सहायक रहेगी और उसे मंजिल तक पहुंचा देगी | वह दुगने उत्साह से कार्य करने लग जाता है |

 

आशीर्वाद देना एक स्वयं में एक गरिमापूर्ण उत्तरदायित्व है | समर्थ एवं सक्षम व्यक्ति ही आशीर्वाद और उपदेश देने का अधिकारी होता है | साथ ही पात्र-कुपात्र का ध्यान रखना भी आवश्यक है | जो वयक्ति स्वयं कुछ करना ही न चाहे और केवल भगवान् या गुरु या ब्राह्मण के आशीर्वाद में ही कामनापूर्ति के स्वप्न देखे, उससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा ?  ध्रतराष्ट ने भी महाभारत युद्ध से पूर्व अर्जुन को 'विजयीभव' का आशीर्वाद दिया था परन्तु स्वयं अपने पुत्र दुर्योधन को वे यह आशीर्वाद उसके आग्रह करने पर भी न दे सके थे |

 

उपदेश या आशीर्वाद केवल पुरुषार्थ को पुष्ट करने का कार्य करता है | आशीर्वाद देने वाले के प्रति यदि हमारी सच्ची श्रद्धा है तो हमारे मन में अपूर्व उत्साह जाग्रत हो जाता है तथा कार्य की सफलता के प्रति पूर्ण विशवास रहता है | इस प्रकार हमारे शरीर, मन और आत्मा एकरस  होकर सत्कर्मों तथा परोपकार के कार्यों में लगते हैं और देवत्व की भावना का विकास होता है | 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ