मनुष्य अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त करे इसका क्या उपाय है? | Vedon ka Divya Gyan |


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मनुष्य अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त करे इसका एक ही उपाय है और वह है सदाचार | हम धर्म पर चलते हुए सौ साल का जीवन जीने की कामना करें |

 

सन्देश:

मनुष्य का जन्म और पुनर्जन्म दोनों ही उसके कर्म और कर्मफल पर आधारित है | जन्म से मृत्यु तक, जब तक यह शरीर है, जीवन है तब तक कुछ न कुछ शारीरिक या मानसिक कर्म वह करता ही रहता है | कर्म किए बिना तो एक छण कभी रह पाना मुश्किल हो जाता है | मनुष्य जीवन तो कर्म करने के लिए ही मिला है | यह बात अलग है कि|

 

विज्ञान का यह सिद्धांत सभी लोग जानते है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, हर कार्य का एक परिणाम होता है | उसी प्रकार हर कर्म का कर्मफल भी होता है | सारा संसार निश्चित नियम व सिद्धांतों पर चल रहा है | भगवान् के इस संसार में अराजकता नहीं वरन न्याय और अनुशासन का ही साम्राज्य है | उसने मनुष्य को इस संसार में लोकहित के कर्म करते हुए सौ वर्ष तक का जीवित रहने का आदेश दिया है | परन्तु वह लोकहित को भूलकर अपने स्वार्थ व अहंकार पूर्ति की दिशा में अपने कर्मों को नियोजित कर देता है और तदनुसार इस विकार ग्रस्त पापकर्म का फल भोगते हुए दुःख प्राप्त करता है |

 

मन में विचार उठ सकता है कि हम फिर किस प्रकार के कर्म करे ? संसार के प्रति उपकार करने का क्या अर्थ है ? हम संसार का भला आखिर क्यों करे ? वास्तव में बात यह है कि ऊपर से तो हम संसार का उपकार करते है, परन्तु असल में हम अपना ही उपकार करते है | दूसरो की भलाई में हमारी भी भलाई है | संसार की उन्नति में हमारी भी उन्नति है | प्रत्येक कर्म करते समय हमारा यही सर्वोच्च उदेश्य होना चाहिए | यदि हम सदैव यह ध्यान रखें कि दूसरो की सहायता करना एक सौभाग्य है, तो परोपकार करने की इच्छा सर्वोत्तम प्रेरणा शक्ति के रूप में हमारे मन में रहेगी |

 

इस प्रकार किये गए कर्म स्वार्थ रहित होने से निष्काम कर्म कहलाते है और उनकी सफलता अथवा असफलता मनुष्य को न तो अहंकारी बनती है और न हो दुःख देती है | अपितु वह यही समझता है कि असफलता यह सिद्ध करती है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं हुआ है | वह पुनः दुगने मनोयोग से कर्म करता है | इस प्रकार वह कर्म मनुष्य से लिप्त नहीं होता है और न मनुष्य में कर्म के प्रति आसक्ति होती है |

 

वह केवल अपना कर्तव्य समझकर ही पुरुषार्थ करता है | जब अपना कोई स्वार्थ नहीं होता तो आत्मवान सर्वभूतेषु की भवन बलवती होती है | सबके लाभ में ही अपना लाभ दिखाई देता है | संसार में जो भी सुख सुविधाएं उपलब्ध हों उनका स्वमं ही उपयोग करने के स्थान पर आपस में बाँट कर खाने में ही आनंद आता है | जगत को इसी प्रकार त्यागपूर्वक भोगने से, अपने समस्त कर्मो को ईश्वरीय कार्यों में नियोजित करते रहने से, वह कर्म कभी भी बंधनकारक नहीं होंगे | ऐसे निष्काम कर्म करने वाले ही संसार में श्रेष्ठ मनुष्य होते है | अतः मनुष्य को सदैव अनासक्त भाव से त्यागपूर्वक सत्कर्मो में ही अपना जीवन समर्पित करना चाहिए |

जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का यही|

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