आत्मशक्ति का सदुपयोग करे | Vedon ka Divya Gyan | Atmabal - 017 | Rigveda 10/164/1 |

 

भावार्थ:

मैं अपने कुविचारों को सदैव दूर रखूँगा | इनसे अपना विनाश नहीं करूँगा | मेरे मन की शक्ति और सामर्थ्य अपार है, इसे बर्बाद न करूँगा |

 

सन्देश:

 

 संसार में हम जो भी कार्य कलाप देखते है, मानव समाज में जो भी गति है, हमारे चारों ओर जो कुछ हो रहा है, वह सारा का सारा केवल मन का खेल है | यह सब कर्म द्वारा ही नियमित होता है | कोई भी कर्म सर्वप्रथम मन में विचार के रूप में जन्मता है | इस विचार पर आंतरिक चिंतन मनन होता है और फिर उसे कार्य रूप में परिणित करने के लिए इच्छाशक्ति जाग्रत होती है | तब मनुष्य वह कार्य करता है | उसके कर्मों से ही अंततः उसके चरित्र का निर्माण होता है |

 

जीवन पर अपनी पकड़ बनाए रखने का एक ही उपाय है - उचित और गहन चिंतन | आजकल हम सभी मुक्त चिंतन की प्रशंसा करते नहीं अघाते | मुक्त चिंतन अच्छा है पर उचित चिंतन उससे भी अच्छा है | और उचित चिंतन का गहन चिंतन में परिणित हो जाना अति उत्तम है | आत्म निरिक्षण की आदत डाले बिना मन के अंदर किर्यशीलता सभी विचारों पर उचित नियंत्रण रख पाना असंम्भव है | अन्तःकरण में मॉल, विक्षेप और आवरण तीन दोष होते है | जब तक इन दोषो को दूर करके मन को शुद्ध, पवित्र और निर्मल नहीं बना लिया जाता उसमे दूषित विचार जन्म लेते रहेंगे | वैचारिक पवित्रता होने पर ही हमारे आचरण व कर्म उत्कृष्ता के दर्शन हो सकते है |

 

गीता का उपदेश है कि मनुष्य को निरंतर कर्म करते रहना चाहिए | हम ऐसा कोई कर्म नहीं कर सकते, जिसमें कहीं कुछ भला न हो, और ऐसा भी कोई कर्म नहीं है, जिससे कहीं न कहीं कुछ हानि न हो | प्रत्येक कर्म अनिवार्य रूप से गुण-दोष से मिश्रित होता है | सत और असत दौड़ने प्रकार के कर्मों की जड़ हमारे मन में ही विकसित होती है | मन में अच्छे विचार उत्पन्न होंगे तो हमारे कर भी शुभ होंगे और कुविचारों का परिणाम अशुभ कर्मों के रूप में प्रकट होगा | मन में उत्पन्न होने वाले दूषित विचार हमें बुराइयों की ओर प्रेरित करेंगे और हमारे सर्वनाश का कारन बनते है | अतः हमें अपने मन में पनपने वाले कुविचारों को समूल उखाड़ फेंकने का सदैव प्रयास करते रहना चाहिए |

 

भारतीय संस्कृति में मन की असीम शक्ति और अपार सामर्थ्य का सदैव अनुशीलन किया जाता है | संस्कार, परिष्कार और संशोधन द्वारा मन में से अवांछनीय तत्वों, दोष-दुर्गुणों आदि को हटाकर उनके स्थान पर सद्गुणों को प्रतिस्थापित करना ही हमारी संस्कृति का मूल आधार है | इसी से दुर्गुणों, दुर्विचारों और दुखदायी तत्वों को मन में घुसने से रोका जा सकता है तथा उनके स्थान पर शुभ तत्व, सुबह विचार और सद्गुण अपनी सुगंध फैलाने लगते हैं |

 

आत्मशोधन का यही क्रम जीवन भर चलता रहना चाहिए | इससे सत्कर्मों के द्वारा मानव जीवन देवत्व की ओर अग्रसर होता है | कुविचार और कुसंस्कार हमारे मन में घुसने का साहस नहीं कर पते | जीवन पवित्र और निर्मल बनता है |

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