मन की अवस्था इंद्रियों के अनुरूप होती है | Vedon ka Divya Gyan | Atmabal - 027 | Atharva Veda 19/9/5 |

 

मन की अवस्था इंद्रियों के अनुरूप होती है | यह मनुष्य के हाथ में है कि इंद्रियों को चाहे सदुपयोग करें या दुरुपयोग | इसलिए सदैव इन्द्रियों की उत्तेजना से बचने का प्रयत्न करना चाहिए |



भावार्थ:

मन की अवस्था इंद्रियों के अनुरूप होती है | यह मनुष्य के हाथ में है कि इंद्रियों को चाहे सदुपयोग करें या दुरुपयोग | इसलिए सदैव इन्द्रियों की उत्तेजना से बचने का प्रयत्न करना चाहिए |

सन्देश:

परमेश्वर ने यह मानव शरीर बहुत सोच-समझ कर बनाया है | इतना विलक्षण परिपूर्ण शरीर किसी भी प्राणी का नहीं है | ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की इस प्रकार की रचना की गयी है कि उनसे सुख, संतोष व आनंद की प्राप्ति के साथ-साथ व्यक्तित्व के विकास में भी सहायता मिलती है |

 

पर यह भोला भला मूर्ख इन्द्रियों के मायाजाल में फंस कर अपना सर्वनाश स्वयं ही कर लेता है | यह उसके हाथ में है की वह अपने मन की लगाम को कसे रहे और इन्द्रियों का सदुपयोग करते हुए आत्मिक सुख प्राप्त करें | पर वह तो उनके दुरुपयोग में ही अपनी बहादुरी समझता है | इन्द्रियों का प्रलोभन उलटे हमारे मन को ही भ्रमित करता देता है | सबसे पहले यह मन को बुराई का परामर्श देता है | फिर यह कल्पना के रूप में व्यक्त होता है | कल्पना में निर्मित उस चित्र का अनुसरण करने में सुख मिलता है | फिर इस सुख का विचार मन को आंदोलित करता है | थोड़ी हलचल होती है और अंततः हम आत्मसमर्पण कर देते है | तथा उस प्रलोभन के पीछे भागने लगता है | धीरे-धीरे मन का पतन होता जाता है | कुविचार और कुसंस्कार उस पर हावी होने लगते है  जिससे वह इन्द्रियों के प्रलोभन में और अधिक फंसता जाता है |

 

इससे बचने का उपाय है कि वैराग्य और अभ्यास के द्वारा मन को सदैव इन्द्रियों की उत्तेजना से बचाये रहना | इन्द्रियों को नियंत्रण व संयम से उपयोग में लाया जाये तो मन उनसे अलिप्त रहेगा | यही पवित्र जीवन का अर्थ है | किसी भी जीव से मोह या आसक्ति न रखो | हमारा प्रिय तो केवल परमात्मा है | कई लोग, विशेषकर युवा वर्ग, ईश्वर की सत्ता के प्रति शंकालु होते है | परन्तु सत्य यही है कि  परमात्मा ही एकमात्र वास्तविकता है | ईश्वर हमारे अंदर विधमान है पर हम उसके बारे में सचेत नहीं है | मानवता की यह महान त्रासदी है | मनुष्य जितना ही मन से पवित्र होता जायेगा, उतना ही वह अपने अंदर ईश्वर के मूर्त एवं विधमान रूप को देख सकेगा |

मन को इन्द्रियों इ प्रलोभन से बचाये रखने का सबसे सरल उपाय यही है कि उसे ईश्वर की भक्ति में लगाए रखा जाए | मानव को जीवन के कर्म करते हुए मन को उनसे अलिप्त रखना चाहिए और उसे लोगों के लिए उपयोगी कार्यो में लगाए रखना चाहिए | यही सच्ची ईश्वर भक्ति है | एक बार स्वामी दयानन्द से प्रश्न किया गया "आपका भी तो हाड मॉस का शरीर है | क्या कभी आपको कामवासना ने नहीं सताया ? "तो उन्होंने कहा मुझे तो जीवन भर कामवासना के चिंतन का अवसर ही नहीं मिला | इस प्रकार अपने मन को प्रभु के कार्य में इतना अधिक संलग्न कर दो कि वासनाओं का विचार ही मन में न घुस सके |

दृढ़ इच्छाशक्ति का यही सुफल है |

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