इस लोक में सुख और परलोक में मोक्ष को प्राप्त कौन करता है? | Vedon ka Divya Gyan | Atmabal - 029 | Yajurveda 40/1 |

                                         

भावार्थ:

जो इस संसार ईश्वर को सर्वव्यापी मानकर दूसरों का धन का अपहरण नहीं करता वह धर्मात्मा पुरुष इस लोक में सुख और परलोक में मोक्ष को प्राप्त करता है |

 

सन्देश:

यह सारा संसार ईश्वर से आच्छादित है | वह सर्वत्र कण-कण में व्याप्त है | समस्त जीव जंतु उसी की ऊर्जा से गतिशील रहते है | संसार के सभी भोग्य, धन-धान्य उसी की कृपा से उत्पन्न होते है | परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि मनुष्य इस सत्य को पहचानने से ही इंकार कर देता है | संसार में जो कुछ भी है उस पर अपना सर्वाधिकार समझकर स्वयं ही भोग करने में रत रहता है | यह सही है कि ईश्वर ने उसी के लिए संसार में सब कुछ उत्पन्न किया है परन्तु उसे त्यागपूर्वक भोग करने का निर्देश भी दिया है | केवल अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही लो और शेष अन्य प्राणियों के उपयोग के लिए छोड़ दो | इसी में उसका कल्याण है |

 

'कस्य सिवत धनम्' यह धन किसका है? हम इस मूल प्रश्न को भूल जाते हैं | यह सारा वैभव, संपत्ति, मकान, बंगले, भूमि, खेत, बाग़, किसी के नहीं है, अपितु ये तो उसी के है जो प्रजा का पालन करता है | यह सब कुछ समाज का है, राष्ट्र का है और ईश्वर का है जो सदा से है, सदा रहता है और सदा रहेगा | हम तो कुछ समय के लिए ही इस मानव योनि में यहाँ आये है और सांसारिक सुखों को भोगकर अपने कर्मों के अनुसार अगली यात्रा पर प्रस्थान कर जाएंगे | न तो यह धन हमारे साथ आया था और न ही हमारे साथ जायेगा | फिर यह लोभ-लालच की प्रवर्ति किसलिए? दूसरों का धन हड़प लेने कि योजनाएं क्यों? संसार की समस्त धन संपत्ति पर अपना अधिकार ज़माने की लालसा क्यों ? यह सब केवल इसी भ्रम का परिणाम है कि हम धन को अपना समझते हैं और यह भूल जाते हैं कि वह तो परमपिता परमेश्वर का है | हमें तो केवल उसके सीमित उपभोग का ही अधिकार मिला है |

 

इसका अर्थ यह नहीं है मनुष्य धन कमाने का प्रयास ही न करें | वरन वेद तो यह कहता है कि अधिक से अधिक तप, श्रम व पुरुषार्थ से धन उपार्जन करना चाहिए | परन्तु साथ ही उसे हर समय यह ध्यान भी रखना चाहिए कि सारा धन परमपिता परमेश्वर का ही है | उसमें से अपनी ब्राह्मणोचित आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए शेष को समाज के कल्याण हेतु समर्पित कर देना चाहिए |

प्राप्त धन का त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए | पहले त्याग की बात सोचें, दूसरों के भले का विचार करें और जो कुछ भी है उसे अपने उपभोग में लाने की योजनाओं में उलझ जाते है | दूसरों के बारे में सोचने का फिर जड़ है | जो इस तथ्य को समझ लेता है उसके माया मोह के बंधन स्वतः ही काट  जाते है | आत्मवत सर्वभूतेषु की भावना से वह सभी प्राणियों में अपनी ही आत्मा का दर्शन करने लगता है | तथा पहले उनके सुख की बात ही सोचता है |

 

धन के इस स्वरूप को पहचान लेने से ही मानव जीवन सुख एवं शांतिपूर्ण बन सकता है |

 

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