जीवन को सही से जीने की कला भी सीखें | Learn the art of living Life Properly | Motivation |

 

अपने को अप्रिय लगने वाली, दुःख देने वाली और कठिनाइयों को बढ़ाने वाली समस्याएँ किस प्रकार अपने अनुकूल बनाई जाएँ, यह जीवन विज्ञान का यह एक ज्वलंत प्रश्न है? दूसरे व्यक्ति या पदार्थ अपने ढंग के बने होते हैं, वे इच्छामात्र से अपने अनुकूल कहाँ बन पाते हैं? प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने के लिए अपने भीतर कुछ विशेषताएँ होनी चाहिए। जिनने अपने में वे विशेषताऐं पैदा कर ली हैं, उनके लिए उनकी प्रतिपक्षी परिस्थितियाँ बहुत हद तक अनुकूल बन जाती हैं। लुहार अपनी भट्टी में लोहे के टूटे−फूटे टुकड़ों को डालकर नरम करता है और उसकी इच्छित वस्तु बनाता है। अपने भीतर भी ऐसी विशेषताएँ होनी चाहिए, जिससे विपन्नता संपन्नता में बदल सके।

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भाइयों समस्याएँ किस प्रकार अपने अनुकूल बनाई जाए, यह जीवन विज्ञान का यह

मेरे भाई जिंदगी जीने की कला सीखिए | इसमें दो तरह के शिक्षाएं ही होती है | पहला प्रतिकूल परिस्थितिओं को अनुकूल बनाने की सामर्थ्य, योग्यता, साहस कैसे पैदा किया जाए | और दूसरा यह कि जो प्रतिकूलता  आ गयी उसको हँसते−खेलते सहन कर लेने की क्षमता पैदा कर लिए जाए |

यह सामर्थ्य और क्षमता जिसमें जितनी होगी, वह जीवन-संग्राम में उतना ही सफल रहेगा। इस बेढंगे और चित्र−विचित्र संसार में भी उसकी गाड़ी उसी तरह चलती रहेगी, जैसे फौजी टैंक ऊबड़−खाबड़ जमीन को पार करते हुए भी अपने लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं।

मेरे भाई जीवन हम सभी जीते हैं, उसे जीना ही पड़ता है, पर यह दुःख की बात है कि हम उसे सही तरीके से जीने की विद्या नहीं सीखते है। कृषि, व्यापार, मशीन, शिल्प, चिकित्सा आदि की अपेक्षा भी जिंदगी जीने की विद्या महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि उसकी आवश्यकता हमें प्रतिक्षण, हर समस्या के सुलझाने और हर कठिनाई के हल करने में पड़ती है। प्रगति और समृद्धि भी, सुरक्षा और व्यवस्था भी उसी पर निर्भर रहती है। जब कठिनाइयों का आते रहना अनिवार्य है, जब परिस्थितियों का प्रतिकूल रहना स्वाभाविक है, तो यह भी आवश्यक है कि हम प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने के लिए सामर्थ्य और क्षमता उत्पन्न करें।

इन्हीं दोनों गुणों का समन्वयात्मक शिक्षण जीवन-विद्या कहलाता है। इसे प्राचीनकाल में भारत का प्रत्येक नागरिक सीखता था। अध्यात्म के नाम से इसी की ख्याति सारे विश्व में थी। भारत इसी का धनी समझा जाता था। अब इस ओर से उपेक्षा होने लगी तो अनाड़ी ड्राइवर की तरह हमारी जीवनरूपी मोटरें दलदलों में फँसी हुई दुर्घटना ग्रस्त हो रही हैं।

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