हम ईश्वर के बनाए नियमों से ही धन कमाए | Vedon ka Divya Gyan | Atmabal - 030 | RigVeda 1/1/3 |

 


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भावार्थ:

हम ईश्वर के बनाए नियमों से ही धन कमाए | बेईमानी का धन हमसे दूर रहे | अनुचित रीती से कमाया धन हम न रखें | धर्म से कमाओ और धर्म में खर्च करो |

 

सन्देश:

वेद ने मनुष्य को लोभ से परे रहने का उपदेश दिया है | प्रश्न यह है कि लोभ क्या है ? व्यक्ति अधिक से अधिक धन प्राप्त करने पर संतुष्ट नहीं होता है इसी का नाम लोभ है | लोभ के अनेक रूप है | अपने स्वास्थ्य का नाश करके धन प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना भी लोभ है | परिवार और बचो की उपेक्षा करके धन कमाने में लगे रहना भी लोभ है | धोखा देकर, चोरी करके, घूस लेकर, टैक्स चुराकर, भ्रष्टाचार आदि से धन कमाना भी लोभ है | दहेज़ प्रथा भी लोभ है | धन कमाने के ये सारे तरीके बेईमानी के है और हमारी आत्मा को पतित करते है | मनुष्य लोभ लालच में पड़कर अनुचित और गलता तरीकों से धन कमाते हैं जो कि सभी तरह से निंदनीय है |

 

इस संसार में सर्वत्र धन की प्रधानता है | जीवन में प्रत्येक कार्य के लिए धन आवश्यक  है | छोटा काम हो या बड़ा, धर्म हो या राजनीति, साधना हो या अनुष्ठान, सभी के लिए धन की जरूरत होती है | इसलिए वेदों ने धन संग्रह को भी एक आवश्यक कर्तव्य बताया है और सर्वत्र से अधिकाधिक धन कमाने की सराहना की है | इससे उसको ऐश्वर्य और समृद्धि का वरदान मिलता है | समृद्धि और सौभाग्य के लिए ज्ञान और दक्षता आवश्यक गुण है | ज्ञान के द्वारा मार्गदर्शन होता है और दक्षता से धन की प्राप्ति या पुष्टता | दक्षता किसी विशेष कार्य में अनुभव के द्वारा प्राप्त कुशलता को कहते है | यह कुशलता ही समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है | मनुष्य जीवन में ईश्वर के बाद चरित्र का और फिर धन का स्थान है |

 

पर मनुष्य की धन से कभी तृप्ति नहीं होती है | इसी तृष्णा को लोभ भी कहते है | यह बहुत बड़ा विकार है | लोभ मनुष्य की बुद्धि को अज्ञानरूपी अन्धकार से ढक देता है | उसकी बूढ़ी अज्ञान से ढंक जाती है तो वह अमानवीय कर्म करने में भी किसी प्रकार की लज्जा अनुभव नहीं करता है | निर्लज्ज बनकर वह अपने धर्म की हानि कर लेता है | इसी प्रकार वह धन, धर्म और  सुख तीनों को नष्ट कर देता है | लोभ और घूस आदि से अनीतिपूर्वक कमाया हुआ धन मन को अशांत और बेचैन रखता है और बेकार ही नष्ट हो जाता है | ऐसा घर और परिवार बुरे कार्यों में ही बर्बाद हो जाता है तथा मनुष्य का नैतिक पतन होता है |


इसलिए वेद ने यह निर्देश दिया है कि मनुष्य को धर्मानुसार आचरण करते हुए ही पुरुषार्थ करके अधिक से अधिक धन कमाने का प्रयास करना चाहिए | ऐसा धन पवित्र होता है और सुख, शांति और संतोष प्रदान करता है | मनुष्य ऐसे धन को अकारण बरबाद भी नहीं करता है और स्वयं अपनी आवश्यकता पार्टी के पश्चात शेष धन को समाज के उठान में खर्च करके आनंदित होता है | जान सामान्य का उस धन से विकास देखकर वह मन ही मन प्रसन्न होता है | वह पवित्र धन लोगों में सात्विकता का विकास करता है तथा सबको सत्य के आचरण की ओर प्रेरित करता है |

 

ईमानदारी की कमाई ही शुभ फलदायक होती है |

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