आर्थिक संतुलन कैसे करे? ~ How to do Financial Balance? ~ Motivation Hindi


 दोस्तों जीवनोपयोगी वस्तुओं को प्राप्त करने एवं विकास, मनोरंजन के साधन जुटाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। मानव−समाज जैसे−जैसे संबद्ध, व्यस्त, दुर्बल, विलासी और विज्ञान पर निर्भर होता चला जा रहा है वैसे−वैसे उसे धन की आवश्यकता और अधिक अनुभव होती जाती है। साधारण जीवनयापन भी अब बहुत महँगा हो गया है। ऐसी दशा में अधिक धन की आवश्यकता हर किसी को अनुभव होती है। जिसके पास प्रचुरता है उसे अधिक सुविधा रहती है और जिसके पास कमी है वह अभाव एवं कठिनाई अनुभव करता है।

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सभी यह चाहते हैं कि आर्थिक स्थिति ठीक रहे, गरीबी और तंगी का कष्ट न भोगना पड़े। जीवनोपयोगी कार्यों के लिए उचित मात्रा में धन की आवश्यकता तो विरक्त महात्माओं से लेकर अशक्त अपंगों तक और गृहस्थों से लेकर बालकों तक सभी को बनी रहती है। अर्थ समस्या का समाधान होने से एक बड़ी चिन्ता दूर हो जाती है।

मेरे भाई इस समस्या का हल दो प्रकार से सम्भव है- एक तो आपको अपनी आमदनी बढ़ानी होगी, और दूसरा पाने खर्चों को घटाना होगा | दोनों का सन्तुलन ठीक रखने से यह चिंता सहज ही दूर हो जाती है। यदि आपने इन दोनों में असंतुलन पैदा कर दिया तो गड़बड़ी उत्पन्न होती रहेगी।

मित्रों यदि आमदनी बहुत हो और खर्च कम हो तो धन जमा होता चला जायेगा। इस संग्रह के फलस्वरूप उत्तराधिकारियों में लालच पैदा हो जायेगा और वे एक दूसरे के दुश्मन बन जायेंगे |  इस संग्रह के फलस्वरूप चोर, डाकू उस लूटने की ताक में रहेंगे |  कुछ लोग उधार के नाम पर हड़पने की इच्छा रखेंगे | दूसरी ओर अपने में भी कंजूसी, तृष्णा, व्यसन, व्यभिचार, अहंकार आदि कितने ही दोष-दुर्गुण पैदा होंगे।

मित्रों इसके विपरीत यदि खर्च बढ़ा हुआ रहेगा तो सदा अभावग्रस्तता, गरीबी, कठिनाई अनुभव होती रहेगी और कर्जदारी का कलंक सिर पर चढ़ने लगेगा। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि अर्थ समस्या सुलझी रखने के लिए आमदनी और खर्च का संतुलन ठीक-ठीक बनाये रखा जाय।

मेरे भाई आमदनी बढ़ाने के लिए स्वभावतः हर व्यक्ति इच्छुक और चिन्तित रहता है। इसके लिए उसे जो सूझ पड़ता है, वह करता भी है।

यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि आमदनी से खर्च कम रखा जाय। आमदनी बढ़ाना सदा अपने हाथ में नहीं रहता। जितनी अपनी इच्छा या आवश्यकता है उतनी कमाई हो ही जायगी इसका कुछ निश्चय नहीं। ईमानदार आदमियों को आरंभ में तो बेईमानों के अपेक्षा कुछ तंगी होती रहती है। ईमानदारी बरगद के पेड़ के समान है जो देर में बढ़ती किन्तु चिरस्थायी रहती है। बेईमानी कागज की नाव की तरह है जो आरम्भ में बहुत सुन्दर, बहुत हलकी और बहुत तेज दौड़ने वाली दीखती है पर कुछ ही देर में उसका वह चमत्कार जड़मूल से नष्ट हो जाता है। कागज गलते ही नाव डूबती है और फिर उसका कुछ अता−पता नहीं मिलता।

मेरे भाई संसार में जौ−बाजरा खाने वाले, मोटा−झोटा कपड़ा पहनने वाले, थोड़े से सस्ते उपकरणों से काम चलाने वाले, सिलाई-धुलाई, हजामत, मकान की सफाई, सफेदी, वस्तुओं की मरम्मत करके अनावश्यक खर्च बचा लेने वाले असंख्य लोग मौजूद हैं, फिर हमारे लिये ही यह सब बातें क्यों कठिन प्रतीत होनी चाहिएं?

फिजूलखर्ची तो दुश्चरित्रता की सगी बहिन है। बढ़े हुए खर्चे पूरे करने के लिए आदमी को बेईमानी का रास्ता अपनाने के लिए विवश होना ही पड़ता है।

अमीरों की नकल करना व्यर्थ है। इस संसार में इतने बड़े अमीर पड़े हैं कि उनके कुत्तों की बराबरी में भी हम शौक मौज नहीं कर सकते। ऊपर को देखने की अपेक्षा हमें नीचे को क्यों न देखना चाहिए? यदि तुलना ही करनी हो तो अपने से गरीबों के साथ तुलना क्यों न करें? जो हमसे कम आमदनी होने पर भी मितव्ययिता के साथ आनन्द और सन्तोष का जीवन व्यतीत करते हैं।

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