दोस्तों संसार का इतिहास साक्षी है कि सन्मार्ग को छोड़कर जिसने कुमार्ग को अपनाया है, नीति को परित्याग कर अनीति को पसंद किया है, वह सदा क्षुद्र, पतित और घृणित ही रहा है। उसके द्वारा इस संसार में शोक-संताप, क्लेश और द्वेष ही बढ़ा है। शूल हूलते रहने वाले काँटे तो यहाँ पहले से ही बहुत थे। मेरे भाई अगर आपका जीवन भी पतितों की संख्या बढ़ाने वाला सिद्ध हुआ तो इसमें क्या भलाई हुई, क्या समझदारी रही? तृष्णा और वासना की क्षणिक पूर्ति करके यदि आत्म प्रताड़ना का, लोकमत की लानत का अभिशाप पाया तो इनमें क्या अच्छाई समझी गई?
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मेरे भाई पाप और अनीति का मार्ग ऐसा ही है, जैसा सघन वन की पगडंडियों पर चलना। ऐसा ही है जैसा मछली का काँटे समेत आटा निगलना और जाल में पड़े हुए दानों के लिए चिड़ियों की तरह आगा−पीछा न सोचना। अभीष्ट कामनाओं की जल्दी-से-जल्दी, अधिक-से-अधिक मात्रा में पूर्ति हो जाए, इस लालच से लोग वह काम करना चाहते हैं, जो तुरंत सफलता की मंजिल तक पहुँचा दे। जल्दी और अधिकता दोनों ही बातें अच्छी हैं|
साथियों अनीति का मार्ग असफलता की कँटीली झाड़ियों में फँसाकर हमारे जीवनोद्देश्य को ही नष्ट कर देता है। हम पगडंडियों पर न चलें। राजमार्ग को ही अपनाएँ। देर में सही, थोड़ी सही, पर जो सफलता मिलेगी, वह स्थायी भी होगी और शांतिदायक भी। पाप का प्रलोभन आरंभ में ही मधुर लगता है, पर अंत तो उसका हलाहल की भाँति कटु है। साँप और बिच्छू दूर से देखने में सुंदर लगते हैं, पर उनके डंक मरने पर जो प्राणघातक वेदना होती है उसे कौन बखान कर सकता है |
दोस्तों पाप भी लगभग ऐसा ही है, वह भले ही सुंदर दिखे, लाभदायक प्रतीत हो; पर अंततः वह अनर्थ ही सिद्ध होगा। अनीति के मार्ग पर चलने वाले को उसकी अंतरात्मा निरंतर धिक्कारती रहती है। जीवन जीने की कला का एक महत्त्वपूर्ण आधार यह है कि पाप के प्रलोभनों से बचें और सन्मार्ग के राजपथ का कभी परित्याग न करें।
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