Summary: गीता एक अभूतपूर्व ग्रन्थ है, इस ग्रन्थ में गोता लगाकर बहुत से गोताखोर अनेक प्रकार के बहुमूल्य रत्नों को निकालते हैं और निकाल रहे हैं। शंकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क, वल्लभ आदि आचार्यगण इस रत्नाकर में गोता लगाने वाले बड़े-बड़े गोताखोर हुए हैं।
गीता एक अद्वितीय रत्न है, जिसे जगत् के एक अद्भुत कारीगर ने ऐसे विचित्र ढंग से तराशा है कि उसके प्रत्येक अवयव से एक ‘अखण्ड-ज्योति’ जगमगा रही है। इस ज्योति ने सूर्य की ज्योति को भी मात कर दिया है, क्योंकि सूर्य की ज्योति तो इस संसार को ही प्रकाशित करती है परन्तु यह ज्योति ब्रह्मलोक तक प्रकाश करती है |
गीता त्रिवेणी का संगम है। इसमें ज्ञान गंगा का, कर्म यमुना का और उपासना सरस्वती की धारायें आकर एकत्रित हुई हैं। इसमें स्नान करने वालों कल्याण क्यों न हो? जो इस १८ अध्याय से युक्त गीता की त्रिवेणी में रोज स्नान करता है वह जीवित अवस्था में ही ज्ञान प्राप्त करके, जीवन मुक्ति होकर परम पद को प्राप्त कर लेता है।
गीता एक अखण्ड जलने वाली ज्योति है, यह ज्योति भारत में प्रज्वलित हुई है, किन्तु प्रकाश समस्त संसार में करती है। गीता एक शुद्ध, स्वच्छ, बहुमूल्य दर्पण है। मनुष्य इस दर्पण में अपने असली स्वरूप को देख तथा समझ सकता है।
गीता मोक्ष के मंदिर की एक अनोखी चाबी है। कलियुग के लोगों को साधन रहित जानकर भगवान श्री कृष्ण ने इस कुँजी को द्वापर-युग के शेष भाग में सबसे पहले अर्जुन को दिया था।
गीता अमृत तुल्य है | गाये के मधुर दूध के समान है, यह कामधेनु रूपी मधुर रस धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चार स्तनों से निकाला गया है। दूध निकालने वाले गोपाल नन्दन भगवान श्रीकृष्ण जी हैं और बछड़ा अर्जुन है। अर्जुन ने इसका थोड़ा सा ही रस पिया था और धन्य हो गए। वह गोरस अभी भी पृथ्वी पर विद्यमान है और इस दुनिया में ऋषि मुनि उसी रस को पीकर मस्त हो रहे हैं।
गीता एक मधुर, मनोहर, सुदृढ़ एवं भव्य ईमारत है। गीता का ज्ञान भगवान श्री कृष्ण जी ने यह ज्ञान अर्जुन को कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि में दिया था |
गीता कल्प वृक्ष के सामान है। इसका जड़ वेद रूपी भूमि में स्थित है। इसके कर्म, उपासना और ज्ञान काण्ड नामक तीन काण्ड इसमें यज्ञ, दान, तप, योग आदि अनेक शाखा उप-शाखाएं हैं | यह वृक्ष सदैव चार ही फल देता है जिनका नाम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है | चार प्रकार का भक्त उन चारों फलों का सेवन करते हैं जो इस प्रकार है | और चार प्रकार का भक्त व्यथित, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी उन चारों फलों का सेवन करते हैं।
गीता ब्रह्म विद्या है- “गीता से परमा विद्या ब्रह्म रूपान संशयः” यह ब्रह्मविद्या भगवान् पद्मनाभ के श्री मुख-कमल से निकली है, अत गंगा से भी अधिक पवित्र है इसका दूसरा नाम ज्ञान गंगा भी है। इसमें जो सतत गोता लगाता रहता है उसकी सम्पूर्ण अविद्या नष्ट हो जाती है और वह दिव्य स्वरूप को प्राप्त होकर अक्षय, अमर बन जाता है।
गीता भगवान् का हृदय है। गीता में हृदय पार्थ!’ भगवान् के हृदय में अनन्त ज्ञान का भण्डार है। अतएव गीता में भी वही है। जो गीता की सेवा करेगा वह अनन्त ज्ञान का भागी बनेगा।
गीता एक अलौकिक ग्रन्थ है, इसमें दिव्य अमर-संदेश है, सर्वश्रेष्ठ उपदेश है! यह उपदेश सर्व जाति, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदायों के लिए समान भाव से उपयोगी है मानव जाति का सनातन धर्मोपदेश है, सार्वभौम संदेश है। इसके वक्ता जगत् गुरु भगवान श्री कृष्ण जी हैं, इसका श्रोता सत्वगुणी मानव जाति है, और श्रवण का फल अमरत्व की प्राप्ति है।
संक्षेप में गीता इस जगत् का अमर फल है। इस संसार का सार है, संसार सागर का आलोक स्तम्भ है। मानव जीवन का पथ-प्रदर्शक है। शास्त्र-सागर का मथितार्थ है, उपनिषदों का सार है, वेदों का तत्व है, सनातन तत्वों का अवभासक है, एक अलौकिक ग्रन्थ रत्न है, इसके सदृश ग्रन्थ संसार में न हुआ और न होगा।
गीता का तत्व हम नहीं जानते— श्रीकृष्ण गीता को सम्यक् जानते है। अर्जुन कुछ फल जानते हैं व्यासजी, व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी, योगी, याज्ञवल्क्य और राजा जनक भी कुछ-कुछ जानते थे। तब हमारे लिये क्या कर्तव्य है— गीता का अध्ययन ही सर्वथा कर्तव्य है। अन्य शास्त्रों के विस्तार की क्या आवश्यकता है?
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