दोस्तों क्या आप जानते हो? जिस प्रकार दूसरों को अपना समय, धन या सलाह देकर उनका कुछ न कुछ भला हम कर सकते हैं उसी प्रकार प्रोत्साहन देकर भी अनेकों की भलाई कर सकना संभव हो सकता है।
मित्रों इंसान की नयी और कोमल भावनाओं का विकास और विनाश दूसरों के प्रोत्साहन अथवा विरोध से बहुत कुछ संबंधित रहता है। साधारण रूप से लोग अपने बारे में कुछ ठीक-ठीक विश्लेषण नहीं कर पाते। इसके लिए वे दूसरों की सहमति पर निर्भर रहते हैं।
जब दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं तो मन प्रफुल्लित होता है, गर्व अनुभव होता है और लगता है कि वह वस्तुतः प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं। परन्तु जब औरों के मुँह से अपनी निन्दा, असफलता और तुच्छता की बात सुनते हैं तो दुःख होता है, मन टूटता है, निराशा आती है।
.
वास्तव में प्रशंसा करने वाले के प्रति कृतज्ञता इसलिए मन में उठती है क्योंकि उसने हमारे सद्गुणों की चर्चा करके मानसिक उत्थान में भारी योग दिया है। वह हमें मित्र और प्रिय लगता है। परन्तु जो लोग अपनी निन्दा करते हैं, वे शत्रु दीखते हैं, बुरे लगते हैं, क्योंकि उन्होंने आपका बुरा पहलू सामने प्रस्तुत करके तुम्हारे मन में निराशा और खिन्नता उत्पन्न कर दी।
आत्म निरीक्षण की दृष्टि से अपने दोष, दुर्गुणों को ढूँढ़ना उचित है। किन्हीं घनिष्ठ मित्र को एकान्त में उनकी अनुपयुक्त गतिविधियों को सुधारने के लिए परामर्श देना भी उचित है। मेरे भाई ऐसा करते समय हर हालत में यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यक्तित्व का निराशात्मक चित्रण न किया जाय।
यदि आप किसी व्यक्ति को बार-बार मूर्ख बोलोगे तो वह धीरे धीरे सारे काम ही मूर्खो जैसे करने लगेगा और साथ में यह भी कहेगा में तो मुर्ख हूँ | इसलिए मेरे भाई किसी को भी लगातार खराब, अयोग्य, पापी, दुर्गुणी, दुष्ट, मूर्ख कहकर सम्बोधन मत करो नहीं तो उसका अन्तर्मन धीरे−धीरे उन कहे जाने वालों बातों को सत्य स्वीकार करने लगेगा।
यदि यह मान लिया जाय कि हम वस्तुतः अयोग्य हैं, बुरे हैं तो फिर मनोभूमि ऐसी ढलने लग जायगी कि जिसमें हिम्मत टूट जाती है, निराशा घेर लेती है, और कोई काम करते हुए मन भीतर ही भीतर सकपकाता रहता है कि कहीं काम बिगड़ न जाय और मूर्ख न बनना पड़े। इस सकपकाहट में हाथ-पैर फूल जाते हैं और बने काम भी बिगड़ने लगते हैं।
मेरे भाई दूसरों को जीवन में प्रोत्साहन देना चाहिए, इस बात का हमेशा ख्याल रखो |
0 टिप्पणियाँ