Summary: क्या तुम अपने आप के स्वामी हो? ~ Are you a Master of Yourself? अपने आप का स्वामी बन कर रहिए ! आप कहेंगे, “हम तो स्वयं अपने स्वामी हैं ही; फिर आपका क्या तात्पर्य है?” यदि आप अपनी इंद्रियों, मानसिक विकारों और अन्तर्द्वंद्वों के वश में हैं ; यदि मन के झकोरों में बह जाते हैं ; यदि आपको नाना क्षुद्र प्रलोभन नाच नचाया करते हैं और आप इनके वश में हैं, तो वास्तव में आप स्वामी नहीं, गुलाम ही हैं। अनियंत्रित इन्द्रियों की दासता ऐसी है, जैसे कठपुतली में बन्धे हुए सूक्ष्म तन्तु। जिधर को तन्तु हिले, उधर ही को कठपुतली ने हाथ पाँव हिलाए। स्वयं कठपुतली का कोई अस्तित्व नहीं है। उसी प्रकार इंद्रियों के दास का क्या ठिकाना! मनुष्य के जीवन का पूरा विकास .गलत स्थानों, .गलत विचारों और .गलत दृष्टिकोणों से मन और शरीर को बचाकर उचित मार्ग पर आरुढ़ कराने से होता है। यदि इन्द्रियों को बेलगाम, यों ही जिधर चाहें चलने के लिए, छोड़ दिया जाए, तो निश्चय जानिए, ये आपको ऐसे गड्ढे में ले जाकर पटकेंगी, जहाँ से उठना असम्भव हो जायेगा। इसलिए भारतीय संस्कृति के संयम को विशेष महत्ता प्रदान की गई है। मनुष्य की वासनाएँ अनन्त हैं ; इच्छाओं की कोई गिनती नहीं, तृष्णाओं की संख्या उतनी ही है जितने आकाश में सितारे। एक वासना, एक इच्छा या एक तृष्णा के पूर्ण होते ही दस नई तृष्णाओं का जन्म हो जाता है। इस प्रकार कामनाओं और नित नई आवश्यकताओं का मोह-बन्धन लगातार हमें बाँधे रहता है। हम साँसारिक भोग-विलास के हर दम दास बने रहते हैं; इच्छाओं के प्रपंच में जकड़े हुए हैं। एक विद्वान ने सत्य ही लिया है, “दुनिया को मत बाँधो, अपने को बाँध लो।” अपनी इन्द्रियों को वश में कर लो तुम विजयी कहलाओगे।
अपनी इन्द्रियों की रखवाली वैसे ही करो, जैसे एक कर्तव्यनिष्ठ सिपाही खजाने के दरवाजे की रक्षा करता है। यदि चोरों को अवसर मिलेगा तो इन्हीं दरवाजों से घुसकर सारा खजाना खाली कर देंगे।
इसलिए खबरदार! दरवाजों पर गफलत न होने देना। इन्द्रियों पर पाप का अधिकार न होने पाये, अन्यथा धर्म, नीति, चरित्र, पुण्य, कीर्ति , यश, प्रतिष्ठा का खजाना खाली हो जायेगा।
मन में संयम से स्वर्ग मिलता है; किन्तु अनियंत्रित इन्द्रियाँ तो नरक की ओर ले दौड़ती हैं। क्या तुम नहीं जानते कि उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घ जीवन, दिव्य बुद्धि और साँसारिक सम्पदाएँ इन्द्रिय-निग्रह से ही मिलते हैं। जिसने अपने ऊपर काबू पा लिया है, वह हर परिस्थिति में पर्वत की तरह दृढ़ और स्थिर रह सकता है।
संयम वह गुण है जिस पर भारतीय संस्कृति टिकी है। हम एक संयमी जाति हैं। हमारे यहाँ संयम का बड़ा व्यापक प्रयोग है।
हमें चाहिए कि खान-पान, वाणी, विचार, चिंतन, सर्वत्र ही आत्मसंयम का प्रयोग करें। हमारा मन जब फालतू, व्यर्थ के अनीतिकर चिंतन में फँसता है, तो हमको उस पर कठोर नियंत्रण करना चाहिए ; जब क्षुद्र अनुराग, मोह, शंका आदि मनोविकारों के बंधन में बंधता है, तब उसका निग्रह करना चाहिए, जब दूसरों की खराबियों की थोथी आलोचना में फँसता है, तब उसे संयम पूर्वक रोकना चाहिए।
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