क्या शस्त्र और शास्त्र दोनों आवश्यक है? ~ Is both Weapon and Scripture Necessary?

 

द्रोणाचार्य के कन्धे पर धनुष, पीछे तरकश, और हाथों में वे देखकर किसी ने प्रश्न किया। ‘आचार्य प्रवर! बाण और वेद एक साथ क्यों? द्रोणाचार्य ने उत्तर-अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनु। इंद ब्रह्मं इदं क्षात्रं शास्त्रादापि शरदपि।” अर्थात् धर्म है तो धनुष-बाण क्षात्र-धर्म शास्त्र एवं शस्त्र दोनों ही ने द्वारा सदाचरण का पथ प्रशस्त किया जाता है।”

विद्या और बल, ज्ञान और भक्ति दोनों ही महत्वपूर्ण एवं आवश्यक हैं। यही प्राचीन आर्ष परम्परा रही है। श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र ने दोनों ही प्रकार का शिक्षण दिया था।

श्रीकृष्ण को भी संदीपनि के आश्रम में उभयपक्षीय शिक्षा प्रदान की गई थी। प्राचीन गुरुकुल परम्परा में यह प्रशिक्षण क्रम समन्वय सर्वत्र विद्यमान था।

अध्यात्म क्षेत्र में वही परम्परा भक्ति और कर्म का समन्वय करने वाले तत्त्वज्ञान के रूप में है।

अर्जुन और हनुमान दोनों ही उत्कृष्ट भक्त थे, साथ ही दोनों को सदा सक्रिय जीवन जीना पड़ा दोनों को ही भगवान द्वारा निरन्तर कर्म की प्रेरणा एवं शिक्षा दी गयी। आत्मोत्कर्ष और लोक-कल्याण की यही समन्वित व्यवस्था भारतीय अध्यात्म की आर्ष परम्परा है।

एकांगी दृष्टिकोण अपूर्ण ही नहीं, हानिकर भी होता है। जिन दिनों भारत में उदारता को सीमाबद्ध किया गया और अहिंसा के अतिवाद में पराक्रम को अनावश्यक ठहराया गया, उन दिनों तेजस्विता-प्रखरता की उपेक्षा होती चली गई और मध्य एशिया से आये मुट्ठी भर आक्रान्ता इस विशाल देश को पराधीन बनाने में सफल होते चले गये।

इसी प्रकार तेजस्विता का अभ्यास होने पर भी उसके साथ में विवेक का मार्गदर्शन न होने पर एक समय आक्रान्ताओं की कुटिल चालों के सामने असंगठित तेजस्वी योद्धा हारते चले गये।

भक्ति एवं कर्म, भावना एवं तेजस्विता दोनों को समन्वित रखने वाला तत्त्वज्ञान ही भारतीय अध्यात्म विद्या का समग्र आधार रहा है।

उसके स्थान पर एकांगी चिन्तन अपनाने की भूल जब की गई है तो दुर्गति का सामना करना पड़ा है जबकि दोनों के समन्वय से सफलता और प्रगति का द्वार प्रशस्त होता है।

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