क्या हमें फिजूलखर्ची से बचना चाहिए? ~ Should we avoid Extravagance? ~ Motivation Hindi

दोस्तों आज हमारे खर्च दिन−प्रतिदिन बढ़ते चले जा रहे हैं। विलासिता की बिलकुल बेकार आदतों को हम दैनिक आवश्यकता मान बैठे हैं और खर्चे अंधाधुंध बढ़ाए चले जा रहे हैं। हर व्यक्ति अपने से अधिक अमीर की नकल करके स्वयं भी अमीर कहलाने की मृगतृष्णा में भटक रहा है। अमीरों के से ठाठ−बाठ बनाने में गरीब लोग जब अपनी औकात और हैसियत का ध्यान छोड़ देते हैं, तब एक उपहासास्पद स्थिति पैदा हो जाती है। फैशन का भूत लोगों पर इसलिए सवार है कि वे कीमती पोशाक, जेवर, नगीने पहनकर, ठाठ−बाठ इकट्ठा करके बड़े और अमीर आदमी समझे जाने लगें। फैशनपरस्ती एक घटिया दर्जे का छिछोरापन है।

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अमीरी की विडंबना बनाने में जो फिजूलखर्ची के उपकरण जुटाते हैं, उन्हें बालबुद्धि ही कहा जा सकता है। आज तो विलासिता की सामग्री को भी आवश्यकता समझने की हमारी बुद्धि भ्रमित होने लगी है।

सिनेमा, बीड़ी, मटरगश्ती, शृंगार-साधन, चाय-पानी, यार-दोस्त आदि महकमे काफी ख़र्चीले बैठते हैं। कीमती कपड़े के कई−कई जोड़े रखने, जेवर आदि बनाने में ढेरों पैसा खर्च होता है। हाथ से काम न करके, छोटे−छोटे कामों को स्वयं न करके, पैसे देकर कराने में आलसी भी बनना पड़ता है और पैसा भी खर्च होता है।

टूटी−फूटी चीजों की मरम्मत न कराके, उन्हें पूर्णरूपेण बेकार हुए बिना ही फेंक दिया जाता है। अव्यवस्थित रूप से पड़ी हुई चीजें समय से पूर्व ही नष्ट और बर्बाद होती रहती हैं। खर्च में हाथ खुला रखने पर उचित आमदनी होने पर भी तंगी बनी रहती है। उधार की आदत फिजूलखर्ची को बहुत बढ़ा देती है।

जब कभी जो कुछ भी लेना हो, नकद लेना चाहिए और उतना खर्च करना चाहिए, जितनी आमदनी हो। उधार देना भी आज के अनैतिक युग में अपने पैसे को सड़क पर बिखेर देने के समान है। लेकर वापिस करने वाले कोई बिरले ही देखे जाते हैं। सामाजिक कुरीतियों में वाहवाही और लोकाचार की उपेक्षा करके ही पैसे की व्यर्थ बर्बादी को रोका जा सकता है।

यह सूत्र हैं, जिन पर विस्तारपूर्वक विचार करके हम मितव्ययी बन सकते हैं और आर्थिक तंगी के कारण उत्पन्न होने वाले असंतोष से बच सकते हैं। बुद्धिमानी पैसा कमाने में नहीं, उसके खर्च करने में है।

मेरे भाई कमाई तो कभी−कभी अनायास भी हो सकती है, पर खर्च के संबंध में मनुष्य कितना सतर्क रहा है, इससे उसकी बुद्धिमानी परखी जा सकती है।

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