जीवन में शक्ति का महत्व क्या है? What is the Importance of Power in Life?

 

नमस्कार दोस्तों संसार में शक्ति की आवश्यकता और महत्त्व को समझकर बुद्धिमान व्यक्ति सदैव उसका संचय करने में तत्पर रहते हैं । कोई जप-तप करके आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न करते हैं, कोई व्यायाम द्वारा शारीरिक शक्ति को बढ़ाते हैं, कोई तरह-तरह की विधाओं और कलाओं का अभ्यास करके बौद्धिक शक्ति को तीक्षा करते हैं । सारांश यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को संसार में सफलता प्राप्त करने के लिए शक्ति संचय की आवश्यकता पड़ती है । निर्बलता एक बहुत बड़ा पातक है । अशक्त व्यक्ति अपना बुरा प्रभाव जिन निकटवर्ती एवं कुटुंबियों पर डालते हैं, उनकी मनोवृत्ति भी उसी सांचे में ढलती है । इस प्रकार यह छूत की बीमारी एक से दो में, दो से दस में और दस से सैकड़ों में फैलती चली जाती है । कायर, आलसी, निकम्मे, निर्बल, भिखारी, दीन, दासवृत्ति के लोग अपने समान औरों को भी बना लेते हैं ।

मेरे भाई, निर्बल व्यक्ति जीवन भर दु:ख भोगते हैं, जिसका शरीर निर्बल है, उसे बीमारियों सताती रहेंगी । सांसारिक सुखों से उसे वंचित रहना पड़ेगा । इंद्रियाँ साथ न देंगी तो सुखदायक वस्तुएँ पास होते हुए भी उनके सुख को प्राप्त न किया जा सकेगा । जो आर्थिक दृष्टि से निर्बल है, वह जीवनोपयोगी वस्तुएँ जुटाने में सफल न हो सकेगा, सुखी और सफल मनुष्यों के समाज में उसे दीन, हीन, गरीब समझकर तिरष्कृत किया जायगा । अनेक स्वाभाविक आकांक्षाओं को उसे मन मारकर मसलना पड़ेगा ।

क्या आप जानते हो कि संसार में पाप, अनीति एवं अत्याचार की वृद्धि का अधिकांश दोष निर्बलता पर है । कमजोर भेड़ और बकरियों को मांसाहारी मनुष्य और पशु उदरस्थ कर जाते हैं । पर भेड़िये का मांस पकाने की किसी की इच्छा नहीं होती । कमजोरी में एक ऐसा आकर्षण है कि उससे अनुचित लाभ उठाने की हर एक को इच्छा हो आती है । नन्हें-नन्हें अदृश्य रोग कीटाणु जो हवा में उड़ते फिरते हैं उन्हीं पर आक्रमण करते हैं, जिन्हें कमजोर देखते हैं । हम अपने चारों ओर आँख फैलाकर देख सकते हैं कि कमजोर पर हर कोई हमला करने की सोचता है । जैसे गंदगी इकट्ठी कर लेने से मक्खियाँ अपने आप पैदा हो जाती हैं या दूर-दूर से इकट्ठी होकर वहीं आ जाती हैं । इसी प्रकार कमजोरों से अनुचित लाभ उठाने के लिए घर के पास-पड़ोस के तथा दूर देश के व्यक्ति एकत्रित हो जाते हैं या वैसे लोग पैदा हो जाते हैं । यदि कमजोरी का अंत हो जाय तो अत्याचार या अन्याय का भी अंत निश्चित है ।

आपको जानकर हैरानी होगी कि दुर्बल मनुष्य स्वयं अपने आप में स्वस्थ विचारधारा नहीं कर सकता । कारण कितने ही है जैसे-

(१) शारीरिक दृष्टि से कमजोर व्यक्ति के मस्तिष्क में पर्याप्त खून नहीं पहुँचता, इसीलिए वह जरा सी बात में उत्तेजित, चिंतित, भयभीत, कातर एवं किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है । ऐसी अस्थिर अवस्था में मस्तिष्क सही निर्णय नहीं कर सकता, वह अंधकारपूर्ण पथ की ओर अग्रसर हो जाता है ।

(२) पुरुषार्थ शक्ति के अभाव में वह अभीष्ट वस्तुओं को बाहुबल से प्राप्त नहीं कर सकता, पर इच्छा उसे सताती है । इस इच्छापूर्ति के लिए वह अधर्म पूर्वक भोग वस्तुओं, संपदाओं को प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त होता है ।

(३) अपनी हीन दशा और दूसरों की अच्छी दशा देखकर उसके मन में एक कसक, आत्मग्लानि, कुढ़न एवं ईर्ष्या उत्पन्न होती है । ऐसी स्थिति में दुर्भाग्य वे निराशाजनक भाव या प्रतिहिंसा के घातक भाव मस्तिष्क में उठते रहते हैं ।

(४) अभावों के कारण जो कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, उनसे विचलित होकर मनुष्य अधर्म पर उतारू हो जाता है ।

(५) निर्बलता एक प्रकार का रोग है । उस रुग्ण अवस्था में विचार भी रोगी हो जाते हैं, उच्चकोटि के आध्यात्मिक विचार उस अवस्था में नहीं रह पाते । शास्त्रकार कहते हैं- "क्षीणानरा: निष्करुणा भवन्ति" अर्थात दुर्बल मनुष्य निर्दयी हो जाते हैं ।

मेरे भाई इन कारणों से स्पष्ट हो जाता है कि भौतिक उन्नति ही नहीं, आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी बलवान बनना आवश्यक है । एक प्रसिद्ध कहावत है कि "शक्ति का प्रयोग करने के लिए शक्ति का प्रदर्शन जरूरी है ।" प्रकृति का, मनुष्यों का, रोगों का, शैतान का आक्रमण अपने ऊपर न हो, इसको रोकने का एकमात्र तरीका है कि हम अपने शारीरिक बौद्धिक आत्मिक बल को इतना बढ़ा लें कि उसे देखते ही आक्रमणकारी पस्त हो जाएँ । बल का संचय अनेक आने वाली विपत्तियों से अनायास ही बचा देता है । सबलता एक मजबूत किला है जिसे देखकर शत्रुओं के मनसूबे धूल में मिल जाते हैं ।

इसलिए मेरे भाई अपना शारीरिक बौद्धिक और आत्मिक बल दोनों बढ़ाने में जुट जाओ |

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ