Summary:
मानसिक असंतुलन से मनुष्य के व्यक्तित्व का एकांगी विकास होता है।
उदाहरण स्वरूप कुछ ऐसे विचार और तथ्य होते हैं जिनके प्रति हम ईर्ष्यालु हो उठते हैं। हम इन विचारों से बच नहीं सकते। उनके बावजूद हमें इन्हीं विरोधी विचारों में कार्य करना है, उनसे मित्रता करनी है। तभी हमें मानसिक शान्ति प्राप्त हो उठेगी।
मन में आन्तरिक संघर्ष का क्या कारण है? दो विरोधी विचार, दो विभिन्न दृष्टिकोण हमारे मानसिक क्षितिज पर उदित होते हैं। हमें इन दोनों के बावजूद कार्य करना है संतुलन ही शान्ति का एक मात्र उपाय है।
चोरी करने वाला व्यक्ति वह है जो अपने विचार, भावना और अन्तरात्मा में पारस्परिक संतुलन नहीं कर पाता।
मन की क्रियाओं को तीन भागों में विभाजित किया जाता है—
1-भावना, 2-विचार, 3-क्रियाएं।
ऐसे बहुत कम व्यक्ति हैं, जिनमें उपरोक्त तीनों क्रियाओं का पूर्ण सामंजस्य का पूर्ण संतुलन हो।
पहले प्रकार के व्यक्तियों में भावना का अंश अधिक होता है | तो वह भावुकता से भरा है, आवेशों का विचार रहता है। उसकी कमजोरी अति-संवेदना शीलता है। वह जग सी भावना को तिल का ताड़ बनाकर देखता है।
दूसरे प्रकार के व्यक्तियों में विचार प्रधानता होती है | ऐसे व्यक्ति दर्शन की गूढ़ गुत्थियों में ही डूबते उतराते रहते हैं। नाना कल्पनाएं उनके मानस क्षितिज पर उदित मस्त होती रहती हैं, योजना बनाने का कार्य उनसे खूब करा लीजिए। पर असली काम के नाम पर वे शून्य हैं।
तीसरी प्रकार के व्यक्ति सोचते कम हैं, भावना में नहीं बहते हैं, पर काम खूब करते रहते हैं। इन कार्यों में कुछ ऐसे भी काम वे कर डालते हैं जिनकी आवश्यकता नहीं होती तथा जिनके बिना भी उनका काम चल सकता है।
पूर्ण संतुलित वही व्यक्ति है जिसमें भावना, विचार तथा कार्य, इन तीनों ही तथ्यों का पूर्ण सामंजस्य या मेल हो।
अच्छे व्यक्ति के निर्माण में क्रिया, भावना, तथा विचारशक्ति इन तीनों आवश्यक तत्वों का पूर्ण विकास होना चाहिए। हम महान पुरुषों में देखते हैं कि उनकी बुद्धि पूर्ण विकास को पहुंच चुकी थी, विचार और इच्छा शक्ति बड़ी बलवती थी और कार्य शक्ति उच्च कोटि की थी। महात्मा गांधी ऐसे संतुलित व्यक्तित्व के उदाहरण थे।
जीवन में संतुलन का महत्व
एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जो हवा के भयंकर तूफान में चला जा रहा है। ठीक मार्ग पर आरुढ़ होना चाहता है किन्तु मार्ग नहीं सूझता।
यही हाल मानव के अन्तर्जगत का है।
मानव जीवन में अनेक आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों का प्राधान्य है। भावना कहती है—
‘‘अमुक व्यक्ति बड़ी दयनीय स्थिति में है। उसकी सहायता करें, अपने सुख सुविधा, साधनों को न देखें।
तर्क आपको रोकता है और कहता है—‘‘क्या पागल हुए हो। सोचो विचारों, दिमाग से काम लो। यदि साधनों का ध्यान छोड़ कर व्यय किया, दूसरों से बड़े-बड़े वायदे किये, तो आफत में फंस जाओगे। भावना में मत बहो। समाज रुपये का आदर करता है।
विलास भावनाएं कहती हैं—‘अरे मानव तूने बहुत श्रम कर लिया है। अब कुछ आनन्द मनाले। जीवन का रस ले। बार-बार जीवन आने वाला नहीं है।’
इस प्रकार मानव के आन्तरिक जीवन में भावना, तर्क, वासना, शरीर बल, आत्म बल, प्रेम, द्वेष, घृणा इत्यादि परस्पर विरुद्ध शक्तियों का अविराम ताण्डव चलता रहता है। जो इन शक्तियों का उचित समन्वय कर सकता है, वही सफल है।
तर्कशील, भावनाशील, कर्मशील—तीनों ही प्रकार के मानव, जीवन में अमर्यादित संतुलन से असफल हो सकते हैं। इसलिए यह ध्यान रखें कि कहीं आपके व्यक्तित्व का एक ही पहलू विकसित न होता रहे। सभी संतुलित रूप से विकसित होते रहें। अतिरेक त्याज्य है। ध्येय और व्यवहार, कर्म और भावना, परिश्रम और विश्राम, तर्क और कार्य इन सभी द्वन्द्वों में उचित समन्वय का नाम ही जीवन है।
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