क्या हमें परिजनों को दुर्गुणी न बनने देना चाहिए? ~ Motivation Hindi


 

दोस्तों क्या हमें परिजनों को दुर्गुणी न बनने देना चाहिए? आज दुर्गुणी परिजन, उतना ही दुख देते हैं जितना शरीर में घुसा हुआ कोई निरन्तर पीड़ा देने वाला कष्ट साध्य रोग देता है। दुर्गुणी स्वजनों को सद्गुणी बनाना उतना ही आवश्यक है जितना बीमार शरीर को निरोग बनाना होता है। शरीर में घुसे हुए रोगों की उपेक्षा करने और उसे पनपने देने में एक दिन मृत्यु का संकट ही उपस्थित हो जाता है। उसी प्रकार परिजनों में घुसे हुए दुर्गुण उस छोटे से घर को नष्ट−भ्रष्ट और नारकीय अग्नि और कुण्ड जैसा दुखदायक बना सकते हैं।

इसलिए मेरे भाई समय रहते उस स्थिति में परिवर्तन कर लेना चाहिए। आग छोटे रूप में जब लगी होती है तब प्रारम्भिक दशा में उसे आसानी से बुझाया जा सकता है पर जब वह दावानल का प्रचण्ड रूप धारण कर ले तब उसे बुझा पाना संभव नहीं रहता। दुर्गुणों के समाधान के लिए प्रयत्न आरम्भिक स्थिति में सफल हो सकते हैं उनमें परिपक्वता आ जाने पर सुधार की गुँजाइश बहुत ही कम रह जाती है।

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मित्रों कोई व्यक्ति यदि सुखी रहने की आकांक्षा करता हो तो उसे अपने शरीर की तरह परिवार को भी निर्मल बनाना पड़ेगा और उसके लिए उसे पूरा ध्यान देना, प्रयत्न करना अपेक्षित होगा।

यह कैसे हो? यह सोचते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि उपदेश देने की प्रक्रिया एक बहुत छोटी सीमा तक ही कारगर होती है। इतने मात्र से यदि काम चल गया होता तो हर घर में कोई-कोई समझाने−बुझाने वाला रहता ही है और वह अपने बलबूते कुछ न कुछ साँव-पटाँव समझाता ही रहता है। तब फिर सुधार क्यों न हो गया होता? फिर कोई घर क्यों अशान्ति का केन्द्र रहा होता?

पाश्चात्य देशों में परिवार संस्था को ही नष्ट कर डालने का प्रयत्न चल रहा है। वे रोग के साथ रोगी को भी समाप्त कर रहे हैं। वहाँ वयस्क होते ही लड़कों को माता-पिता का आश्रय छोड़कर स्वावलम्बी बनना पड़ता है और अपना अलग घर बसाना पड़ता है। इस प्रकार स्त्री और उसके छोटे बच्चे ही परिवार रह जाता है।

माँ-बाप बुड्ढे होने पर अपनी संचित कमाई पर गुजारा करते हैं या सरकार से वृद्धावस्था की सहायता लेकर ‘वृद्ध गृहों’ में रह जिन्दगी के दिन पूरे कर लेते हैं। फिर भी उनकी समस्या सुलझ नहीं पा रही है। दुर्गुणी पति-पत्नी एक दूसरे को दुख देते ही हैं और उन्हें पुराने को छोड़ने तथा नया साथी ढूँढ़ने की मृगतृष्णा में निरन्तर भटकना पड़ता है।

किशोर बालक वहाँ भी माता-पिता के लिए सिर दर्द बने रहते हैं। वयस्क होकर स्वावलम्बी हो जाने से पूर्व के दिन, जब तक कि बच्चे किशोर रहते हैं माता−पिता को बुरी तरह कुढ़ाते रहते हैं। इस गुत्थी को यूरोप वाले भी नहीं सुलझा पा रहे हैं फिर भारत में तो वह सुलझेगी भी कैसे? जहाँ माता-पिता, छोटे बहिन-भाई, विधवाऐं, विधुर आर्थिक तथा अन्य कारणों से विवश होकर एक ही नाव में बैठ कर जिन्दगी पार करते हैं।

हमारी धार्मिक मान्यताएं बच्चों का भविष्य, आर्थिक परिस्थितियाँ एवं उपार्जन की कठिनाई को देखते हुए परिवार को उस प्रकार तोड़−फोड़ डालना संभव नहीं हो सकता। ऐसी दशा में यूरोप की अपेक्षा हमारे लिए यह और भी अधिक आवश्यक है कि परिवार की परिस्थितियाँ सुधारने का प्रयत्न किया जाय और यह कार्य आर्थिक सुधार से नहीं मानसिक स्तरों के स्वस्थ निर्माण से ही संभव है।

घर के लोग सद्गुणी बनें तभी समस्या सुलझ सकती है।


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