आत्म-निर्माण ही प्राचीन काल में स्वाध्याय और सत्संग का विषय होता था ~ Self Development ~ Motivation Hindi

 


दोस्तों क्या आप जानते हों कि आत्म-निर्माण ही प्राचीन काल में स्वाध्याय और सत्संग का विषय होता था | आज साधना का अर्थ केवल भजन-पूजन समझा जाता है और किसी देवी देवता से कुछ सिद्धि वरदान प्राप्त करना या परलोक में मुक्ति का अधिकारी बनना उसका उद्देश्य माना जाता है। साधना के अंतर्गत यह बात भी आती है, पर उसका क्षेत्र इतना ही नहीं-इससे कहीं अधिक विस्तृत है।

स्वाध्याय और सत्संग, चिंतन और मनन यह चार उपाय अपनी अन्तःभूमि के निरीक्षण, परीक्षण करने, त्रुटियों एवं दोषों को समझने तथा कुविचारों को त्याग कर सत्प्रवृत्तियों अपनाने के है। यह चार उपाय भी साधना के ही अंग हैं। जीवन समस्याओं को सुलझाने में सहायक होते हैं |

मेरे भाई क्या आप जानते हो गुरुजन भी आत्म-निर्माण के विषय की शिक्षा दिया करते थे। उच्च शिक्षा वस्तुतः यही है। कला कौशल की अर्थकारी जो विद्या स्कूल-कालेजों में पढ़ाई जाती है वह तुम्हारी जानकारी और कार्य कुशलता को तो बढ़ा सकती है पर आदतों और दृष्टिकोण को सुधारने की उसमें कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गयी है।

आजकल बहुत से कथा सुनाने वाले या सत्संग करने प्राचीनकाल के किन्हीं देवताओं या अवतारों के चरित्र तो सुनते है | स्वर्ग की प्राप्ति और मुक्ति की चर्चा तो करते है |

पर तुम्हें यह कभी नहीं बताते कि तुम अपने व्यक्तित्व का विकास कैसे करों? आत्म− निर्माण के बारे में को बात नहीं करता है | मेरे भाई, आत्म− निर्माण का विषय इतना महत्वहीन नहीं है कि उसे विधिवत् जानने−समझने के लिए कहीं कोई स्थान ही न मिले। ज्ञान की प्रशंसा तो लोग करते हैं उसकी आवश्यकता भी अनुभव करते हैं पर आत्म−ज्ञान जैसे उपयोगी विषय की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते।

क्या आप जानते हो कि तुम्हें आत्मविद्या और आत्म−ज्ञान का आरम्भ अपनी छोटी−छोटी आदतों के बारे में जानने और छोटी−छोटी बातों का सुधारने से ही हो सकता है।

तुम्हें कब सोना है, कब जागना है इसका ज्ञान नहीं है | तुम्हें बोलने और बात करने की समझ भी नहीं है | क्या और कैसे खाना-पीना है तुम्हें पता ही नहीं है | तुम्हें चलना-फिरना भी सही ढंग से नहीं आता है | तो फिर तुम वह आत्मा और परमात्मा की अत्यन्त ऊँची शिक्षा को व्यावहारिक जीवन मैं कैसे ढाल सकोगे | इसमें पूरा−पूरा संदेह हैं।

आत्म−ज्ञान का आरंभ अपनी आन्तरिक स्थिति को जानने से होता है | अपनी छोटी-छोटी आदतों के द्वारा उत्पन्न हो सकने वाले बड़े−बड़े परिणामों को समझने से होता है।

आत्म−विद्या का अर्थ यही है कि तुम्हें अपने व्यक्तित्व और दृष्टिकोण को उपयुक्त ढाँचे में डालने की कुशलता का ज्ञान हो। आत्म−विद्या का ज्ञान वही है जो आत्म−संयम और आत्म−निर्माण जैसे महत्वपूर्ण विषय पर क्रियात्मक रूप से निष्णान्त हो चुका है। वेदान्त, गीता और दर्शन शास्त्र को घोंटते रहने वाले या उन पर लम्बे-चौड़े प्रवचन करने वाले आचरण रहित वक्ता को नहीं, आत्म− ज्ञानी उस व्यक्ति को कहा जायेगा जो अपने मन की दुर्बलताओं से सतर्क रहता है और अपने आपको ठीक दिशा में ढालने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है, चाहे वह अशिक्षित ही क्यों न हो।

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