चिन्ता में डूबे रहने से क्या फायदा ~ What is the Benefit of Living in Worry


Summary:
चिन्ता इंसान की एक विनाशक वृत्ति है, जो मनुष्य के समय का अनावश्यक मात्रा में बर्बाद करती रहती है। जिस समय के द्वारा मनुष्य अपना स्वास्थ्य सुधार सकता था जिस समय के द्वारा आजीविका कमा सकता था, जिस समय के द्वारा विद्याध्ययन अथवा कोई उपयोगी कला सीख सकता था वह व्यर्थ ही बरबाद हो जाती है।
 

जितने समय को वह शारीरिक, मानसिक, आर्थिक अथवा किसी अन्य प्रयोजन में, विकास के काम में लगा सकता था, उसे छोटी-छोटी बातों की चिन्ताओं में ही गंवाता रहता है। मनुष्य जीवन किसी महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिये मिलता है, इसे छोटी-छोटी बातों की चिन्ताओं में गंवा देना समझदारी की बात नहीं। अपने जीवन लक्ष्य को समझना और उसमें अन्त तक तत्परता पूर्वक लगे रहना तभी सम्भव हो सकता है जब चिन्ताओं से छुटकारा पायें, इनसे दूर रहें और इनसे क्षरित होने वाली शक्तियों को बचाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगायें।
 

चिन्तायें अपने पीछे भी एक विषाक्त वातावरण बना जाती हैं, जो मनुष्य की जीवन शक्ति का चिरकाल तक शोषण करती है। इनसे जितना ही बचाव किया जाता है ये शहद की मक्खी की तरह उतना ही पीछा करतीं और अपने विषदंश चुभोती रहती हैं। मनुष्य चिन्ताओं के जाल में फंस कर अपनी मौत के ही सरंजाम जुटाता रहता है। जीवन-मृत्यु अकाल-मृत्यु की ओर तेजी से ले जाने वाली यह चिन्तायें ही होती हैं।
 

चिन्ताओं से मस्तिष्क के अन्तराल में काम करने वाली सेज व फाइवर शक्तियों से किस प्रकार जीवन-शक्ति का तड़ित क्षरण होता है इसका पता जर्मनी के डाक्टरों ने एक प्रयोग से लगाया। किसी पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति को अचानक चिन्ताजनक समाचार सुनाया गया।
चिन्ता जीवन की शत्रु है। शत्रु का काम होता है त्रास देना भयभीत रखना और दांव लगते ही आक्रमण करना। ठीक ऐसा ही काम चिन्तायें करती हैं। दिन-रात मनुष्य को घुलाती रहती हैं। रक्त, वीर्य, बल और बुद्धि का निरन्तर शोषण करती रहती हैं। व्यक्ति को निराश बना देती हैं।
 

चिन्ता का अर्थ क्या है?
चिन्ता का अर्थ है—किसी समस्या से हार मान लेना, अपने आप को पराजित घोषित कर देना। यह एक मनोविकार है जो मनुष्य की दुर्बलता प्रकट करता है। प्रस्तावित कठिनाई को अपनी शक्ति से बड़ी मान लेने के अतिरिक्त चिन्ताओं का और कोई भी अस्तित्व नहीं। खान-पान, रहन-सहन और सामाजिक व्यवहार की अनेकों चिन्तायें होती हैं, किन्तु इनके आधार इतने छोटे होते हैं कि उन्हें जानने से हंसी आती है।
 

अपना पड़ौसी अच्छा खाता-पीता है। उसकी नौकरी भी अच्छी है। पर खुद का भोजन बड़ा रूखा-सूखा होता है। वेतन भी कम मिलता है। इन्हीं बातों को विवशतापूर्वक देखने का अर्थ है—चिन्ता। दूसरा अच्छा खाता है तो क्या हुआ, कितने ही तो ऐसे हैं जो बेचारे एक समय ही भोजन पाते हैं। आपको केवल सौ रुपये ही वेतन मिलता है तो असंख्य ऐसे हैं जो दिन भर कठोर श्रम करके भी शाम तक बारह आने कमा पाते हैं। तब फिर यह चिन्ता क्यों? इससे यही पता चलता है कि चिन्ताओं का आधार उतना बड़ा नहीं होता जितना लोग उसे महत्त्व देते हैं। चिन्ताओं के द्वारा अपनी कार्यक्षमता घटा देना, जीवन में घबराहट उत्पन्न करना अल्प-विकसित बुद्धि वालों का काम है। यह आत्मविश्वास की कमी को दिखाता है। इन्हें बढ़ाओ मत, दूर करो। यह आपके शत्रु हैं।
 

आशावाद और कर्मठता को अपने जीवन में धारण करने से वह आसुरी चिन्तायें अपने आप लौट जायेंगी। इनसे हार मान लेने का अर्थ है—जीवन के प्रति नैराश्य। इसका परिणाम है—पतन की ओर उन्मुख होना, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसलिये अपने जीवन को समुन्नत बनाने के लिये इन्हें सदैव दूर रखिये, अन्यथा ये असमय में ही खा जाने वाली डाकिनें हैं। चिन्ताओं से बचाव का सबसे अच्छा साधन है—आध्यात्मिक धारणा।
 

इसलिये इनके परिणामों की आसक्ति से दूर रहना ही श्रेयस्कर है। इससे चिन्ताओं से अपने आप छुटकारा मिल जाता है। विशुद्ध कर्त्तव्य-भावना से यहां का प्रत्येक कार्य, क्रिया, व्यापार चलाते रहना ही अच्छा है। समस्याओं से अपनी सामर्थ्य को छोटा मान लेना चिन्ता का कारण है। आप अपनी समस्याओं को संयोग मात्र मानिये। उन्हें निकालिये सही किन्तु कठिनाइयों की चिन्ता न कीजिये तो ही जीवन लक्ष्य की ओर सफलतापूर्वक अग्रसर हो जाना सम्भव होगा।
 

चिन्ताओं के चक्कर में ही पड़े रहे तो आपका विचार क्षेत्र भी संकुचित बना रहेगा। विचारों का दायरा न बढ़ा तो वह स्थिति कहां बन पड़ेगी जिसके लिये अमूल्य मानव-जीवन मिला है। चिन्तायें जीवन-विकास में गतिरोध उत्पन्न करती हैं। मनुष्य की कार्य-क्षमता को पंगु बना देती हैं इससे मानवीय-विकास का मार्ग भी रुक जाता है। मनुष्य एक अपनी अलग दुनिया बना लेता है, इसे चिन्ताओं की दुनिया कहना ही उपयुक्त लगता है।

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