दोस्तों आजकल हम बच्चों के बिगड़ने पर तुमको कोसते रहते है | क्या आप जानते हो कि माता-पिता का दायित्व क्या होता है?
मेरे भाई क्या आपको पता है, अभिमन्यु को चक्रव्यूह वेधन की शिक्षा अर्जुन ने तब दी थी जब वह अपनी माता द्रौपदी के गर्भ में था। हर एक बालक अभिमन्यु की परिस्थिति में ही होता है, उसे जो कुछ सिखाया जाता है हम अर्जुन की तरह अपनी वाणी या क्रिया द्वारा उसे सिखा सकते हैं।
रानी मदालसा का नाम आपने सुना है, रानी मदालसा ने अपने बच्चों को गर्भ में ही ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देकर ब्रह्मज्ञानी उत्पन्न किया था। जब उसके पति ने एक बालक राजकाज के उपयुक्त बनाने का अनुरोध किया तो मदालसा ने उन्हीं गुणों का एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कर दिया।
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मेरे भाई, हर माता की स्थिति मदालसा की सी होती है यदि वह अपने गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक सुधार कर ले तो वैसे ही गुणवान बालक को जन्म दे सकती है जैसा कि वह चाहे।
ऊसर खेत और सड़े बीज के संयोग से जैसे बेतुके अविकसित पौधे पैदा हो सकते है वैसे ही बच्चे हमारे घरों में जन्मते हैं। गुलाब के फूल बढ़िया खेत में अच्छे माली के पुरुषार्थ से उगाये जाते हैं पर कटीली झाड़ियाँ चाहे जब उपज पड़ती हैं। अच्छी संतान सुसंस्कारी माता−पिता ही प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न कर सकते हैं। किन्तु कुसंस्कारी बालक हर कोई फूहड़ स्त्री-पुरुष उगलते रह सकते हैं। अच्छी सद्गुणी संतान की आकांक्षा गुलाब की फसल उगाने की तरह है जिसके लिए माँ-बाप को काफी तत्पर होना पड़ता है।
मेरे भाई यदि यह कार्य तुम्हें कठिन लगता हो तो संस्कारवान सन्तान की आकांक्षा भी छोड़ देनी चाहिए और जैसे भी उद्दंड, दुर्गुणी, कुसंस्कारी, दुर्गति बच्चे जन्मे उन्हें अपनी करनी का फल मानकर सन्तोष कर लेना चाहिए।
इसलिए मेरे दोस्तों माता-पिता को पहले अपना सुधार करना चाहिए | इसके बाद ही बच्चे में वह आशा करनी चाहिए | एक छोटी सी घटना याद आ रही है ध्यान से सुनो |
एक महात्मा इसलिए प्रसिद्ध था कि उसकी शिक्षाओं का दूसरों पर बड़ा असर पड़ता है जिससे जो कुछ कह देते थे वह वैसा ही करने लगता था। इस प्रशंसा को सुनकर एक माता अपने बालक को लेकर यह उपदेश दिलाने महात्मा के पास पहुँची कि बच्चा अधिक शक्कर न खाया करे। डाक्टर मिठाई के लिए मना करते थे पर बालक मानता न था।
महात्मा पहले तो कुछ गंभीर हुए पर पीछे महिला को दस दिन बाद आकर उपदेश दिलाने के लिए कह कर उसे विदा कर दिया। महिला दस दिन बाद फिर आई। महात्मा ने शक्कर न खाने का उपदेश दिया और बालक ने उसी दिन से उसे मानना शुरू कर दिया। पास बैठने वाले लोगों ने पूछा इतनी छोटी बात के लिए आपने दस दिन बाद आने के लिए उस महिला को क्यों कहा? महात्मा जी ने बताया कि तब वह स्वयं शक्कर बड़ी रुचिपूर्वक खाते थे इसलिए इन दिनों दिये गये उपदेश का कोई प्रभाव बालक पर नहीं पड़ सकता था। इन दस दिनों में मैंने स्वयं शक्कर त्यागी और उसके प्रति घृणा बुद्धि भी पैदा की। इतना सुधार अपने में कर लेने के बाद ही मेरे लिए यह सम्भव हो सका कि बच्चे को शक्कर छोड़ने का प्रभावशाली उपदेश दे सकूँ।
मित्रों यही बात हमारे ऊपर भी लागू होती है | बच्चों को आमतौर से उनके अभिभावक बहुत अच्छे उपदेश देते रहते हैं और उन्हें राम, भरत एवं श्रवण कुमार देखना चाहते हैं। पर कभी यह नहीं सोचते कि क्या हमने अपनी वाणी एवं आकांक्षा को अपने में आवश्यक सुधार करके इस योग्य बना लिया है कि उसका प्रभाव बच्चों पर पड़ सके?
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