दृष्टिकोण (Attitude of Mind) बदलें सब कुछ बदलेगा


 दोस्तों क्या आपको पता है कि अगर हम अपने दृष्टिकोण यानि Attitude of Mind को बदल लें तो जीवन में बहुत कुछ बदल जायेगा।

दोस्तों मनुष्य जीवन के एक ही दृष्टिकोण का ग्रहण करता है। वह दूसरों के दोष-दुर्गुण ही देखा करता है। अच्छाई उसे नजर नहीं आती क्योंकि उसने अपने एक दृष्टिकोण का चश्मा पहना हुआ है। जिस रंग का चश्मा उसकी आँखों पर चढ़ा होता है वैसा ही रंग इस दृश्य दुनिया का दिखाई देता है।

हमारे मानसिक विचार ही बाहरी संसार के प्रति दृष्टिकोण के रूप में सामने आते हैं। हमारा दृष्टिकोण जैसा रहता है उसी के अनुसार हमें संसार दिखाई देता है। पुरोगामी दृष्टिकोण वाला संसार में अच्छाई देखकर मित्र समझता है। प्रतिगामी दृष्टिकोण वाली उसी संसार में बुराई देखकर शत्रु समझता है।

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जिस दृष्टिकोण से वह देखता है उसी के अनुसार उसे सोचता है। उसे वातावरण भी उसी के अनुसार प्राप्त हो जाता है। बुराई देखने वाला अच्छी वस्तु को भी बुरी तथा अच्छाई देखने वाला बुरी वस्तु को भी अच्छा समझता है। एक चाकू को डाकू या हत्यारा पराक्रम में सहयोगी, चाकू का शिकार प्राणघातक तथा एक गृहस्थ स्त्री सब्जी काटने का उपकरण समझती है।

मेरे भाई एक बार दुर्योधन और युधिष्ठिर से पूछा गया था कि सभा में कितने बुरे तथा कितने अच्छे लोग है ? जानते हो की उन्होंने क्या जबाव दिया होगा? दुर्योधन ने सभी को बुरा बताया और युधिष्ठिर की दृष्टि से सभी अच्छे थे। इससे यह मालूम होता है कि हमारा दूसरों के प्रति दृष्टिकोण ही हमारे अन्तर की सच्ची भावना है। वह पूर्ण रूप से परिचय करा देती है कि कौन व्यक्ति किस तरह का है। हमारा बाहरी जीवन आन्तरिक भावों की छाया है। जिन राह से आन्तरिक जीवन गमन करता है बाहरी जीवन की छाया उसी पथ के अनुसार चलती है |

आप मनो या न मानों मनुष्य अपने लिये अपनी कब्र तैयार करता है। अपने इन नुक्ताचीनी वाले विचारों के द्वारा सारे संसार को अपना विरोधी देखकर भीषण आपत्ति, दुख, असन्तोष आदि प्राप्त करता है। यह अमृत के समान संसार उसे नीरस एवं भयावह लगता है। इसी परेशानी की उधेड़-बुन में उसका जीवन नरक के समान बन जाता है।

जो बुरे होते हैं वे दूसरों के साथ लड़ने-झगड़ने, पीड़ित करने के आदी हो जाते हैं। जब उन्हें अपने विरोधी नहीं मिल पाते या स्वयं को असमर्थ पाते हैं तब स्वयं को ही परेशान कर आत्महत्या तक कर लेते हैं। अपना तन, मन, धन दूसरों की बुराई के लिए नष्ट कर देते हैं। प्रतिरोधी के प्रति नुक्ताचीनी का अवसर खोजते रहते हैं। इसी में अपने बहुमूल्य समय और धन का अपव्यय करते रहते हैं। अपने चारों और बुराई का कीचड़ उछालते रहते हैं। किन्तु भला मनुष्य दूसरों के सुख सम्वर्धन में अपना समय, सहयोग अर्पित कर भलाई की सुगन्ध बिखेरता रहता है।

यह संसार ईश्वर के द्वारा बनाया हुआ है। यह कहीं भी बुरा, गन्दा अपवित्र नहीं है। मंगलमय भावना की यह रचना मंगलमय है। मेरे भाई अगर मनुष्य के देखने का तरीका गन्दा हो तब तो चारों ओर गन्दा संसार देखकर दिन-रात बेचैन रहेगा। ऐसा इंसान ईश्वर को, अपने भाग्य को, सभी को गालियाँ देता है। ऐसा इंसान सारा दोष उन पर लादता है। स्वयं को दुखी, अभागा, परेशान, संकटग्रस्त ही देखता है। अपने अंदर की वेदना सुनाते समय विश्व का सारा दुख एवं अभाव अपने ऊपर ही लदा हुआ पाता है। इतिहास के पन्नों से पता चलता है कि सारे सुख एक साथ किसी के पास नहीं रहे। पर अभाव अवश्य रहा है।

जो विवेकशील, विचारवान होते हैं वे प्राप्त सुविधाओं के लिए ही ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। स्वर्ग के समान सुख अनुभव करते हैं। कुछ अभाव एवं दुख कौतूहल लगते हैं। जो विकृत दृष्टि वाले होते हैं अनेकों सुविधाओं को कम मानते हैं। इस असन्तोष की धारा में अपने समय और बल का अपव्यय करके सुर-दुर्लभ जीवन को पशु के समान गंवा देते हैं। विवेकवान इस समय कठिनाइयों के हल करने में उपयोग करता है। कष्टों से छुटकारा पाकर सुखी बन जाता है। मकान में आग लगने पर रोने-धोने में समय खर्च न करके आग बुझाने के साधन जुटाकर अग्नि से रक्षा करेगा किन्तु बुरा व्यक्ति भाग्य को कोसता, रोता चिल्लाता ही दुख का सागर सिर पर बाँध लेगा तथा कुछ भी रक्षा नहीं कर पायेगा।

एक परीक्षा में अनुत्तीर्ण छात्र दुखी होकर आत्महत्या तक कर लेता है। किन्तु समझदार को अपनी स्थिति देखकर सन्तोष होगा। भविष्य में अच्छी पढ़ाई करने को तत्पर होगा। अपनी तुलना अभावग्रस्तों से करने पर हमें अपना जीवन सुखदायक प्रतीत होगा। कुछ आर्थिक कमी रहने पर आय के अन्य साधन ढूंढ़कर आय वृद्धि करेगा या खर्च कम करेगा। इन तरीकों से पूर्ति न हो तो अभाव ग्रस्तों की तुलना में अपने को सुखी मानकर सन्तोष करेगा, किन्तु बुरे लोग अपनी तुलना साधन सम्पन्न से करके ईर्ष्या, असन्तोष की आग में जलते रहेंगे। मेरे भाई यह दृष्टिकोण का अन्तर है।

एक भोगी इंसान पत्नी को भोग का साधन मानता है। सफल गृहस्थ मित्र मानता है। कामुकता से प्रेरित युवा एक युवती को वासनात्मक दृष्टि से देखता है। अध्यात्मवादी उसे ही आत्मा की अनोखी आभा की खान देख पुलकित होता है। भगवान की मूर्ति को आस्तिक घट-घट वासी ब्रह्म, एक भौतिकवादी सजावट तथा चोर उसकी कीमत आँकता है। इसी दृष्टि के प्रतिफल से वे अलग-अलग फल प्राप्त करते हैं।

वास्तविक सुख का आगार भावनाएं हैं, दृष्टिकोण है। भावनाओं को ऊंचा उठाने से, परिष्कृत करने से, आदर्शवाद का पुट देने से आध्यात्मिकता की वृद्धि होती है |

हमारा दृष्टिकोण ही मित्र-शत्रु, सुख-दुख, आनन्द-परिताप, सन्तोष-असन्तोष आदि का कारण है। हमें जीवन का सही लाभ लेने के लिए दृष्टिकोण को उत्कृष्ट रखकर इस सुरदुर्लभ मानव -तन का फल प्राप्त करना चाहिए।

 

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