सफल जीवन के दो प्रमुख तत्व क्या है? ~ What are the Two Major Elements of a Successful Life? ~ Motivation Hindi

आशा और गति ही सफल जीवन के दो प्रमुख तत्व है | आशा और गति की कोई कीमत नहीं लगा सकता है | मनुष्य को सफल होने के लिए इन दोनों की बहुत ही आवश्यकता होती है |


दोस्तों आशा को जीवन का चिह्न मानना चाहिए। इसके अभाव में दो स्थिति रह जाती हैं जिन्हें अति मानवी या अमानवी कह सकते हैं। एक ब्रह्मज्ञानी जिन्हें भीतर ही सब कुछ मिल रहा है बाहर जिन्हें न कुछ आकर्षक लगता है और न उपयोगी। इन लोगों को देव पुरुष कहना ही उचित होगा | दूसरे वह लोग होते हैं जो आहार और निद्रा के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचते हैं। ऐसे लोग किसी तरह दिन कट जाने और साँसें पूरी कर लेना के बारे में सोचते हैं

| उन्हें कोई महत्वाकांक्षा नहीं सताती है। शरीर यात्रा पूरी होती रहे इतने में ही उन्हें सन्तोष रहता है इस प्रकार के लोगों को अमानव कहा जाता है। इन लोगों को आशा निराशा में कुछ लेना देना नहीं होता है। ऐसे लोग कहते है जो है सो ठीक है, जो होगा सो ठीक ही होगा । आगे की बात सोचने से क्या लाभ है।  

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दोस्तों जिसकी आशा का दीपक बुझ गया—जिसे निराशा ने घेर लिया—जिसकी आकांक्षाएँ समाप्त हो गई—भविष्य के लिए जिसके पास कुछ सोचने या करने को नहीं है उस ढर्रे की जिन्दगी को मौत की खुराक ही कहना चाहिए। दोस्तों जीवन का अर्थ सिर्फ साँस लेना नहीं होता, जीवन का अर्थ सिर्फ खाना और सोना नहीं होता है | वरन् जीवन का अर्थ कुछ ऊँचा है। जहाँ वह ऊँचाई न हो वहाँ जीवित होते हुए भी मरे हुए इंसान की भांति ही मन जायेगा | कई व्यक्ति जिन्दगी के कन्धों पर मौत की लाश लादकर ढोते रहते हैं। आशा विहीन लोगों को इसी श्रेणी में गिना जाता है।

दोस्तों जीवन रथ का पूरा दूसरा चक्र है गति। चेष्टा—क्रिया—हलचल के उस स्तर को गति कहते हैं जो शरीर यात्रा के प्रकृति−प्रदत्त क्रम उपक्रम से आगे की सक्रियता जुड़ी हुई हो। शरीर यात्रा की हलचल तो घास−पात, पेड़−पौधे, अदृश्य जीवाणु और कीट पतंग में भी होती है। गति इससे ऊपर की ऐसी चेष्टा है जो किन्तु महत्वकांक्षाओ की प्रेरणा से उत्पन्न होती है। इस ‘गति’ की प्रखरता के सत्परिणामों को ही ‘प्रगति’ कहा जाता है।

गतिशीलता में जितनी शक्ति खर्च होती है उससे कहीं अधिक आशा और प्रदत्त लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रबल मनोयोग और प्रखर श्रम, साधन सहित निरन्तर अग्रगामी रहना पड़ता है। इसी को जीवन रथ का फुर्तीला संचालक कहा जा सकता है। आशावान और गतिशील को ही जीवित कह सकते हैं। यों साँस तो लुहार की धोंकनी भी लेती, छोड़ती रहती है।

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