मनुष्य अपने भाग्य और भविष्य का निर्माण स्वयं करता है ~ Fortune and Future

दोस्तों मनुष्य अपने भाग्य और भविष्य का निर्माण स्वयं करता है। इस तथ्य सभी लोग जानते है कि दूसरों की सहायता से अपनी सुविधाएँ बढ़ती हैं और उनके असहयोग एवं आक्रमण से अपनी प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होता है−जो हमें जलते है वे लोग विपत्ति खड़ी करते हैं और सहयोगी सुखद सम्भावनाएँ उत्पन्न करते हैं।  


 हर इंसान की इच्छा यही रहती है कि उसके सहयोगी बढ़ते रहें और विद्वेषी घटते जायँ। इस स्वाभाविक आकाँक्षा की पूर्ति का जो सही तरीका हैं उससे बहुत कम लोग ही जानते है। यही बहुत बड़े दुर्भाग्य की बात है। अनुभव हीन प्रयास में भटकते हुए पैर कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। और भटकाव के कारण उलटे उलझन में फँसते तथा कष्टों को सहते हैं।

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संसार का शाश्वत नियम यह है कि व्यक्ति का स्तर अपने स्तर की ओर आकर्षित होता है और आकर्षित करता है। जैसे चुम्बक लोहे के टुकड़ों को अपनी और खींचता है और लौह चूर्ण चुम्बक की ओर दौड़ता है। चोरों के पास चोर, नशेबाजों के पास नशेबाज ढूँढ़ते, टटोलते जा पहुँचते हैं और परस्पर घुल−मिलकर अपने ढंग का ताना−बाना बुनते हैं। ठीक यही बात साधु, सज्जन, सद्गुणी लोगों के सम्बन्ध में लागू होती है। उनके भी सत्संग जुड़ते और जमाते बनती हैं | उस समूह में भी सहयोगियों की संख्या बढ़ती ही जाती है। दूसरी ओर चोर दुराचारियों के गिरोह भी बढ़ते और मजबूत होते जाते हैं। यह समान स्तर के लोगों का समान स्तर वालों के साथ जुड़ते घुलते जाने के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

यह सिद्धान्त मनुष्यों पर भी लागू होता है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप जिस स्तर का व्यक्तित्व विनिर्मित होता है उसी प्रकार के व्यक्ति घनिष्ठ बनते चले जाते हैं और फिर उनके संयोग में जो प्रतिक्रिया होनी चाहिए वह होती है।  

हर मनुष्य के अन्दर कुछ न कुछ अच्छाई और कुछ न कुछ बुराई पाई जायगी। उनमें से जिस भी अंश का हम स्पर्श करेंगे वही अपने लिए फलप्रद बन जायगी। गाय दूध भी देती है और गोबर भी। अपनी रुचि जिसमें होगी वही खोजा जायगा और वही मिलेगा। बगीचे में फूल भी रहते हैं और गन्दगी भी। भौंरे फूलों का आनन्द लेते हैं गोबर के कीड़ों को सारे उद्योग में गन्दगी के ही ढेर लगे मिलते हैं। अपनी रुचि के अनुरूप हम किसी भी व्यक्ति के दुर्गुणों के, सद्गुणों के सम्पर्क में आते हैं और उसी के सम्पर्क की प्रतिक्रिया अनुभव करते हैं।

स्वर्ग किसी स्थान विशेष का नाम नहीं है। किसी लोक विशेष में वैसी इमारतें या परिस्थितियाँ नहीं हैं जैसी कि स्वर्ग का वर्णन करते हुए कथा−पुराणों में बताई गई हैं। न किसी ग्रह−नक्षत्र में वैसा नरक है जैसा यमदूतों द्वारा उत्पीड़न दिये जाने के कथा−विवरणों में बताया जाता है। इन दोनों का अस्तित्व इसी लोक में है और हर व्यक्ति के दाँये−बाँये साथ−साथ चलता है। सन्त इन्फर्सन कहा करते थे−‘‘मुझे नरक में भेज दो मैं वहीं अपने लिए स्वर्ग बना लूँगा।’’ इस कथन में ठोस सत्य भरा हुआ है। सज्जन अपनी प्रखर उत्कृष्टता के सहारे सम्पर्क में आने वाले हर जड़ चेतन को अपने अनुरूप बहुत कुछ बदल लेते हैं |

ठीक इसी प्रकार नरक का सृजन है। दुर्बुद्धि वाले मनुष्य अपनी दूषित दृष्टि और दुष्प्रवृत्तियों के कारण अच्छे वातावरण के बीच भी विक्षोभ उत्पन्न करते हैं। तंग करने पर भोली गाय भी लात मारती है। अनुचित छेड़खानी करने पर सरल लोगों को भी क्रोध आता है और वे भी कठोरता बरतने पर उतारू हो जाते हैं।  परिस्थितियाँ नहीं हमारे मन की स्थिति ही हमें नरक में डुबोती हैं और स्वर्ग के शिखर पर चढ़ाती हैं।

ठीक इसी प्रकार स्वर्ग का सृजन भी मनुष्य के अपने हाथ में है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाकर कोई भी मनुष्य आन्तरिक प्रसन्नता और बाहर से सज्जनों का सद्भाव−सम्पन्न सहयोग पाकर यह अनुभव कर सकता है कि वह स्वर्गीय आनन्द का रसास्वादन कर रहा है।

दूसरे सहायता तो करते हैं पर वह उसी दिशा में होती है जिसमें कि अपना प्रवाह बहता है। दूसरों से सहयोग की अपेक्षा करने में कोई हर्ज नहीं, वह मिलता भी है और मिलना भी चाहिए। पर एक बात सदा ध्यान में रखकर चलना होगा कि अपने स्तर के अनुरूप ही यह बाहरी सहयोगी जुटाया जा सकेगा। रात भर भले ही पानी बरसता रहे, पर अपने को उसका उतना ही लाभ मिलेगा। जितना बड़ा बर्तन पास में हो। पात्रता से अधिक बाहरी सहायता मिलती भी कहाँ है?

परावलम्बन की−दूसरों की गुलामी की सर्वत्र निन्दा की गई है। स्वावलम्बन को−आत्म−निर्भरता को मनीषियों ने भरपूर सराहा है। स्वर्ग की भाँति मुक्ति को भी सर्वोच्च आध्यात्मिक सफलताओं में गिना गया है। इस दृष्टिकोण को अपनाते ही अनेक महान सत्यों का रहस्योद्घाटन होता है और मनुष्य को विश्वास हो जाता है कि अपनी भली−बुरी परिस्थितियों के लिए पूर्णतया हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। भगवान ने अपने भाग्य निर्माण का दायित्व पूरी तरह हमारे हाथ में सौंपा है। चिन्तन और कर्तृत्व के दोनों पैरों के सहारे से किसी भी दिशा में− कितनी ही लम्बी यात्रा भली प्रकार कर सकते हैं। दूसरे तो यत्किंचित् सहारा भर ही दे सकते हैं। उनके बलबूते कोई बड़ी योजना बनाना और उसके पूरा होने का स्वप्न देखना निरर्थक है।

यदि हम स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्पन्नता, सम्मान, सफलता से वंचित रहते हैं तो इसके लिए दूसरों को दोष देना व्यर्थ है गहराई से उन कारणों को तलाश करना चाहिए जिनके द्वारा विपन्नता, विनिर्मित होती है। आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा, उदासीनता, आवारागर्दी जैसे दुर्गुणों में लोग अपनी अधिकाँश शक्तियाँ नष्ट करते रहते हैं, महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए उनका श्रम, समय, मनोयोग लगता ही नहीं, फिर वे सफलताएँ कैसे मिलें जो प्रगाढ़ पुरुषार्थ का मूल्य माँगती हैं।

संसार के प्रायः सभी सफल मनुष्य अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़े हैं उन्होंने कठोर श्रम और तन्मय मनोयोग का महत्व समझा है। यही दो विशेषताएँ जादू की छड़ी जैसा काम करती हैं और घोर अभाव की−घोर विपन्नताओं की परिस्थितियों के बीच भी प्रगति का रास्ता बनाती हैं। बाहर की कोई शक्ति किसी को उठाती, गिराती नहीं। यह सब पूर्णतया अपनी स्थिति पर निर्भर है।

यह भ्रम जितनी जल्दी हटाया जा सके उतना ही अच्छा है कि कोई देव, दानव, मन्त्र−तन्त्र, गुरु, सिद्ध पुरुष, मित्र, स्वजन, धनी, विद्वान हमारी कठिनाइयाँ हल कर देंगे या हमें सम्पन्न बना देंगे। इस परावलम्बन से अपनी आत्मा कमजोर होती है और अन्तःकरण में छिपी प्रचण्ड आत्म−शक्ति को विकसित होने में भारी अड़चन पड़ती है। अस्तु परावलम्बी मनोवृत्ति को जितनी जल्दी छोड़ा जा सके−आत्म−निर्भरता को जितनी दृढ़ता से अपनाया जा सके उतना ही कल्याण है।

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