गुरु गोविन्द सिंह जी के पांच प्यारे की कहानी ~ The story of the five beloved of Guru Gobind Singh Ji

 


Summary:

गुरू गोविन्दसिंह के पाँच प्यारे की कहानी जब मुगल शासनकाल के दौरान जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय सिख धर्म के गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 में बैसाखी पर्व पर आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में सिख समुदाय को आमंत्रित किया। जहाँ गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। उस समय गुरु गोबिन्द सिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी। उन्होंने घोषणा की- "भाइयो। देश की स्वाधीनता पाने और अन्याय से मुक्ति के लिए चण्डी बलिदान चाहती है, तुम से जो अपना सिर दे सकता हो, वह आगे आये। संगत में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया! किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अचानक गुरु जी ने ऐसी बात क्यों की. गुरु जी फिर बोले, "क्या है कोई ऐसा मेरा प्यारा, जो मुझे अपना सिर दे सके, है कोई ऐसा जो इसी क्षण मेरी इस मांग को पूरा कर सके?" गुरु गोविन्दसिंह की मांग का सामना करने का किसी में साहस नहीं हो रहा था, तभी दयाराम नामक एक युवक आगे बढ़ा। " गुरु उसे एक तरफ ले गये और तलवार चला दी, रक्त की धार बह निकली, लोग भयभीत हो उठे। तभी गुरु गोविन्दसिंह फिर सामने आये और पुकार लगाई अब कौन सिर कटाने आता है। एक- एक कर क्रमश: धर्मदास, मोहकमचन्द, हिम्मतराय तथा साहबचन्द आये और उनके शीश भी काट लिए गये। बस अब मैदान साफ था कोई आगे बढ़ने को तैयार न हुआ। गुरु गोविन्दसिंह अब उन पाँचों को बाहर निकाल लाये। विस्मित लोगों को बताया यह तो निष्ठा और सामर्थ्य की परीक्षा थी, वस्तुत: सिर तो बकरों के काटे गये। तभी भीड़ में से हमारा बलिदान लो- हमारा भी बलिदान लो की आवाज आने लगी। गुरु ने हँसकर कहा- "यह पाँच ही तुम पाँच हजार के बराबर है। जिनमें निष्ठा और संघर्ष की शक्ति न हो उन हजारों से निष्ठावान् पाँच अच्छे?'' इतिहास जानता है इन्हीं पाँच प्यारो ने सिख संगठन को मजबूत बनाया। जो अवतार प्रकटीकरण के समय सोये नहीं रहते, परिस्थिति और प्रयोजन को पहचान कर इनके काम में लग जाते है, वे ही श्रेय- सौभाग्य के अधिकारी होते हैं, अग्रगामी कहलाते है। Subscribe to Knowledge lifetime: https://bit.ly/372jJ9F Youtube: https://www.Youtube.com/Knowledgelifetime https://www.knowledgelifetime.com

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