हमारे जीवन में पांच आध्यात्मिक शत्रु कौन है ~ Spiritual Enemy ~ Pandit Shriram Sharma Acharya

हमारे जीवन में पांच आध्यात्मिक शत्रु कौन है?

इस संसार में मनुष्य को दुःख देने वाले तीन प्रकार के शत्रु होते हैं।

सबसे पहले शत्रु होता है - आधिदैविक, जैसे बहुत अधिक बारिश का होना, किसी तूफान का आ जाना, या किसी भयंकर भूकम्प का आना आदि।

दूसरा शत्रु होता है - आधिभौतिक, जैसे सर्प, बिच्छू, टिड्डी, डाका, युद्ध आदि।

तीसरा शत्रु होता है - आध्यात्मिक, जैसे अज्ञान, स्वार्थ, विक्रोश, आलस्य और अभाव। इनमें से आधिदैविक और आधिभौतिक कष्ट बाहर से आते हैं और हम समय सूचकता तथा दूरदर्शिता के सहारे उनसे बहुत कुछ अपनी रक्षा कर सकते हैं।

परन्तु हमारे आध्यात्मिक शत्रु हमारे अपने मन या स्वभाव के ही विकार हैं इसलिये उनका प्रतिकार तब तक नहीं किया जा सकता जब तक हम स्वयं अपना सुधार न कर लें।


(1) अज्ञान के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि “ज्ञान के समान पवित्र वस्तु इस संसार में दूसरी नहीं है।” इससे स्पष्ट हो जाता है कि अज्ञान के समान अपवित्र वस्तु भी दूसरी नहीं है। हम अज्ञान को सबसे बड़ा शत्रु इसलिये कहते हैं कि अज्ञान के प्रभाव से हमारे हितैषी भी हमारा अहित कर डालते हैं।

अज्ञान के कारण न मालूम कितने पूजा के योग्य महापुरुषों का बलिदान कर दिया गया। जब इस विषय पर हम विचार करते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है कि मनुष्य अज्ञान से कैसा अंधा हो जाता है। इसलिये हम चरक महाराज के इस मत को सर्वथा ठीक मानते हैं कि “प्रज्ञापराधो मूलं सर्व रोगाणाम्” अर्थात् “समझ का दोष सब रोगों की जड़ है।”

यह सब अज्ञान का ही प्रभाव है कि हमारे जितने भी कष्ट, आपत्तियों और हानिकारक बातें देखने में आ रही हैं उनमें से तीन चौथाई का कारण हमारा अज्ञान ही है।

(2) स्वार्थ- संसार में हमारा दूसरा शत्रु स्वार्थ अथवा तृष्णा है। वैसे तो कुछ महात्माओं को छोड़कर प्रत्येक मनुष्य में स्वार्थ और प्रेम का सम्मिश्रण होना अनिवार्य है, पर कितने ही लोगों में यह स्वार्थ असाधारण मात्रा में पाया जाता है और वह समाज के लिए बड़ा घातक सिद्ध होता है। इस सम्बन्ध में भर्तृहरि जी ने बड़े

सुन्दर ढंग से लिखा है :- “इस संसार में चार प्रकार के मनुष्य होते हैं-एक वे महात्मा जो अपने स्वार्थ को त्याग करके दूसरों का हित करते हैं। दूसरे वे सामान्य लोग जो यदि उनके स्वार्थ को हानि न पहुँचती हो, तो यथाशक्ति परोपकार भी करते हैं। तीसरे वे राक्षस स्वभाव के व्यक्ति जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के स्वार्थ का नाश करते हैं। चौथे वे लोग जो बिना कारण, बिना किसी प्रकार के अपने लाभ के दूसरों की हानि करने में तत्पर रहते हैं। भर्तृहरि जी कहते हैं, ऐसे लोगों को किस नाम से पुकारा जाय यह समझ में नहीं आता।” इस प्रकार स्वार्थ का अनुचित भाव मनुष्य को राक्षस बना देता है। यही काम, लोभ, मोह और अभिमान के रूप में प्रकट होता है।

(3) विक्रोश- मनुष्य जाति का तीसरा शत्रु विक्रोश है। यह वह दुर्गुण है जिसके कारण वे मनुष्य उत्पन्न होते हैं, जिन्हें भर्तृहरि जी ने चौथी श्रेणी में रखा है। कुछ मनुष्यों में दूसरों के दुःख में आनन्द लेने की स्वाभाविक दुष्प्रवृत्ति होती है। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि किसी भी कारण से नहीं, किंतु अकारण ही दूसरों को पीड़ा देते हैं। उनके हृदय में जो स्वाभाविक विध्वंसकारी प्रवृत्ति होती है उसी को विक्रोश का नाम दिया है। इसे क्रूरता तथा दुष्टता की प्रवृत्ति भी कह सकते हैं।

(4) आलस्य- मानव समाज का चौथा शत्रु आलस्य है। यह दुष्टों और अज्ञानियों में ही नहीं, परमात्मा और भले समझे जाने वाले लोगों में भी पाया जाता है।

गीता में कहा है “अज्ञान से तम उत्पन्न होता है जो सब प्राणियों को बुद्धिहीन बना देता है। यह तमोगुण सभी लोगो को प्रसाद, आलस्य और निद्रा के बन्धनों से बाँधता है।”

बहुत से मनुष्य ऐसे पाये जाते हैं जो अपने संचित धन में से सहस्रों रुपये दान करते हैं। उनमें पराये दुःख में संवेदना भी पाई जाती है। वे दान भी करते हैं। इस दशा में उनको स्वार्थी कैसे कहा जाय? वे किसी को दुःख भी जहाँ तक बन पड़ता है नहीं देते हैं। परन्तु स्वयं करते कुछ नहीं। इनका दोष आलस्य है। संसार में किसी को ‘दुःख न देना’ इतने मात्र से मानव समाज की उन्नति नहीं हो सकती। प्रत्येक मनुष्य को क्रियात्मक रूप में कुछ न कुछ देना भी चाहिए।

क्या आप जानते है कि वेद में इस क्रिया को ‘सवन’ के नाम से पुकारा गया है। जिसका अर्थ होता है - प्रत्येक मनुष्य का धर्म है कि वह किसी न किसी पदार्थ में से सार को खींच निकाले। जो ‘सवन’ नहीं करते वे प्रभु के प्यारे नहीं हैं।

ऋगवेद के पहले अध्याय के ४ सूक्त के १० वें श्लोक में कहा गया है कि ”जो सवन करने वालों का सखा है इस इन्द्र के (अथवा परमात्मा व राजा के) गीत गाओ।”

(5) अभाव - हमारा पाँचवाँ शत्रु अभाव है। वास्तव में यह अज्ञान अथवा आलस्य से ही उत्त्पन्न होता है। किंतु अनेक अवस्थाओं में यह उन मनुष्यों से भी पाप कराता है जो स्वभाव से दुष्ट अथवा आलसी नहीं होते है।

किसी ने ठीक ही कहा है-  भूख से व्याकुल स्त्री अपने पुत्र को भी छोड़ देती है, और एक साँप भूख से व्याकुल होकर अपने अण्डों को भी खा डालती है । इस दुनिया में भूखा इंसान कौन सा पाप नहीं कर सकता क्योंकि व्याकुल मनुष्य करुणा से रहित होता है ।

 

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