जीवन को जीते तो जिंदादिल ही हैं, कायर लोग तो बेमौत ही मरते हैं|
The Courageous Has To Die Only Once
कठिनाइयाँ हर किसी के सामने आती हैं, प्रतिकूलताएँ हर किसी के सामने आती हैं। सुखद संभावनाओं की तरह दुखद-परिस्थितियाँ आ धमकने की आशंका भी हर किसी के सामने बानी रहती है। जो घटित हो रहा है, संभावित है, उसमें ऐसा कुछ भी सोचा जा सकता है, जिसमें विपत्ति आने का अनुमान लगा लिया जाए।
इतने पर भी यह निश्चित नहीं कि वैसा होगा ही। यह भी हो सकता है कि आशंका बेकार साबित हो। सामान्य क्रम ही चलता रहे अथवा जो अनिष्ट सोचा गया था, उसके विपरीत सुखद संभावना सामने आ खड़ी हो। जिस व्यक्ति से आक्रमण करने की, हानि पहुँचाने की बात सोची गई है, हो सकता है उसके मन में वैसा कुछ हो ही नहीं।
दोस्तों अपने डर के कारण भी तिल का ताड़ बन जाता है | और अपने डर के कारण झाड़ी से भूत निकलते दिखाई देता है। यह केवल अपने ही नकारात्मक चिंतन की काली छाया होती है। भय की आशंकाओं में से बहुत ही काम परिणाम हमारे सामने सच होते है | अधिकांश तो कुकल्पनाएँ ही होती हैं।
डरते रहने से तुम्हारा मन दुर्बल हो जाता है और अकारण ही उतना खून सूखता है, जितना कि वास्तविक विपत्ति से जूझने पर भी न सूखता। भय से असंख्यों मनोरोग उठ खड़े होते हैं। साहस टूटता है और आशंका से बचने या जूझने के लिए जिस कौशल-संतुलन की आवश्यकता थी, वह समय से पूर्व ही समाप्त हो जाता है।
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विपत्ति मनुष्य पर ही आती है। वे उससे जूझते भी हैं और कोई रास्ता न रहने पर धैर्यपूर्वक सहते भी हैं। इस समूची प्रक्रिया से गुजरने पर जितनी क्षति उठानी पड़ती है, उसकी तुलना में डरपोक, भयभीत लोग बिना संकट का सामना किए भी कहीं अधिक घाटा उठा चुके होते हैं। ऐसे लोग बाहरी रूप से देखने पर स्वस्थ भले ही दिखाई दें, पर वे मानसिक रूप से परेशान रहते हैं।
शरीर भीतर ही खोखला हो जाता है, शरीर निस्तेज हो जाता है, शरीर दुर्बल बनता जाता है। रोगी शरीर को औषधि-उपचार तथा अच्छे आहार-विहार से रोगमुक्त किया भी जा सकता है; पर यदि तुम्हारे मनःसंस्थान लड़खड़ाने लगा तो तुम विक्षिप्तों की श्रेणी में जा पहुँचते हो और तुम मस्तिष्कीय विशेषताएँ खो बैठते हो और तुम पशु की तरह निरर्थक जीवन जीने को विवश हो जाते है। तुम्हें भय की हानियाँ समझनी चाहिए और उससे मुक्त रहने का प्रयास करना चाहिए।
न्यूयार्क की ‘एकेडमी आफ मेडिसिन’ के चिकित्साविज्ञानियों ने भय के प्रभावों के बारे में गहरी खोज-बीन की है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि भयाक्रांत होने अथवा चिंतातुर बने रहने पर मस्तिष्क में एक विशेष प्रकार का रसायन उत्पन्न होता है, जो रक्त के साथ मिलकर शरीर के अंग-प्रत्यंगों में संकुचन पैदा करता है। यह भी देखा गया है कि भयमुक्त होते ही यह विचित्र रसायन स्वतः विलुप्त हो जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि रक्तचाप, हृदयरोग, उदरशूल, मधुमेह, दमा जैसी बीमारियाँ ज्यादा समय तक चिंताग्रस्त अथवा भयग्रस्त रहने के ही दुष्परिणाम हैं। इससे उत्पन्न मस्तिष्कीय रसायन शरीर के आंतरिक अवयवों को प्रभावित कर उनकी सामान्य प्रक्रियाओं को तो बाधा पहुँचाता ही है, Nervous System को भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
हर वक्त भय की आशंका से घिरे रहने पर मस्तिष्कीय क्षमता पर घातक प्रभाव पड़ता है। सोचने-विचारने की क्षमता में कमी होने लगता है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जार्ज प्रेस्टन ने अपने विविध परीक्षणों के उपरांत बताया है कि इससे व्यक्ति पागल तक हो सकता है। इतना ही नहीं, ऐसे व्यक्ति समीपवर्ती लोगों को भी संक्रामक रोगों की तरह व्यथित कर देते हैं। उन्होंने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है कि माता के भयाक्रांत होने पर उसकी गोद में पड़ा शिशु भी रोने लगता है। इसी तरह के अध्ययन-परीक्षण ‘कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय’ के अनुसंधानकर्त्ताओं ने किए हैं और निष्कर्ष निकाला है कि डर संक्रामक का रोग है।
डरपोक लोगों के साथ रहकर डरपोक और हिम्मत वाले लोगों के साथ रहकर आदमी बहादुर हो जाता है। इसकी पुष्टि में उन्होंने कई प्रमाण भी जुटाए हैं। उनके अनुसार आदिवासी कबीलों के बच्चे भेड़िए, शेर, चीते जैसे हिंस्र जानवरों को देखकर न तो भयभीत होते हैं और न ही रोते-चिल्लाते अथवा भागकर छिपने का प्रयत्न करते हैं; किंतु शहरी एवं ग्रामीण अंचलों के बच्चों को प्रायः देखा जाता है कि खूँखार, जंगली जानवरों के नाम लेते ही वे डरने लगते हैं।
वैज्ञानिकों ने यहाँ तक पाया है कि भयातुर व्यक्तियों की रिकॉर्ड की गई आवाज को सुनकर भी बहुत से लोग भयभीत हो जाते हैं। एक ऐसे ही प्रयोग-परीक्षण में जब उन्होंने मनोविज्ञान के विशेषज्ञों को डरे-सहमे लोगों की आवाज को टेप रिकॉर्डर के माध्यम से सुनाया, तो उसके आश्चर्यचकित कर देने वाले परिणाम सामने आए। पहले जो मनोविज्ञानविशारद शांत एवं प्रसन्नचित्त थे, रिकॉर्ड की हुई आवाज को सुनते ही उनकी प्रसन्नता न जाने कहाँ गायब हो गई। उनमें से कुछ को बेचैनी महसूस होने लगी, तो अन्य सशंकित हो एकदूसरे की ओर ताकने लगे। सबके चेहरों पर चिंता एवं शंका के भाव उभर आए। परीक्षण के बाद सभी ने स्वीकार किया वह सभी डर गए थे।
‘कोलंबिया विश्वविद्यालय’ के नेत्रविशेषज्ञों ने अनुसंधान करके इस तथ्य को उजागर किया है कि भय का नेत्रों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सामान्य डर से दृष्टि क्षमता कम हो जाती है, जबकि अधिक डरावने दृश्य उपस्थित हो जाने पर व्यक्ति बेहोश भी हो जाता है। कुछ वर्ष पूर्व इंग्लैंड में एक ऐसी फिल्म दिखाई जा रही थी, जिसके अंतर्गत कुछ भय उत्पन्न करने वाले दृश्य थे, जिन्हें देखकर कई दर्शक बेहोश हो जाते थे और उन्हें अस्पताल पहुँचाना पड़ता था। बाद में उस अंश को निकाल दिया गया। चिकित्साविशेषज्ञों ने इस तथ्य को भी स्वीकार किया है कि तीव्र डर और चिंता के कारण मनुष्य के बाल रातों-रात सफेद हो सकते हैं।
‘इलीनोयस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ के अनुसंधानकर्त्ता विशेषज्ञों का कहना है कि चिंतातुर एवं डरपोक लोग कई तरह के मानसिक रोगों से ग्रस्त होते हैं, उनमें कई प्रकार की सनकें पाई जाती हैं। कुछ तो अपनी कल्पनाओं के प्रति इतने दृढ़-निश्चयी होते हैं कि दूसरों के सुझाव या सत्परामर्श मानने को तैयार भी नहीं होते।
इनमें अधिकांश व्यक्ति भविष्य की चिंता से घिरे रहते हैं, व्यापार-व्यवसाय में घाटे की आशंका से घिरे रहते हैं, घर-परिवार या बच्चों के भविष्य के प्रति आशंका से घिरे रहते हैं। तो कुछ आग, बिजली, हिंस्र पशुओं, दुर्घटनाओं जैसे ‘फोबिया’ के शिकार होते हैं। विद्यार्थी परीक्षाओं में परिणाम को लेकर चिंतातुर देखे जाते हैं। वस्तुतः, यह सब मनोबल की कमी और अदूरदर्शिता का ही परिणाम है। कल्पनाओं के परिमार्जन और उन्हें सही दिशा में लगा देने भर से बहुत हद तक डर के जंजाल से छुटकारा मिल जाता है।
वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि बुद्धिमानों एवं विवेकशीलों पर डर का प्रभाव नहीं पड़ता है। अल्पबुद्धि के भावुक लोगों को ही इस महाव्याधि का शिकार बनते देखा जाता है। महापुरुषों, आत्मवेत्ताओं के जीवन में इसके लेशमात्र भी दर्शन नहीं होते। ऐसे आदर्श चरित्र सामने रखने पर हर कोई भय और आशंका से सहज ही छुटकारा पा सकता है। महात्मा बुद्ध, रवीन्द्रनाथ टैगोर, आचार्य बिनोवा भावे , स्वामी दयानंद, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानंद, महावीर आदि महामानवों के जीवन के अनेकानेक घटना-प्रसंग ऐसे हैं, जिनमें मृत्यु उपस्थित कर सकने वाली परिस्थितियों में भी वे निर्भय एवं निश्चिंत रहे।
वास्तव में आस्तिक व्यक्ति का जीवन में भय मुक्त होता है | आध्यात्मिक व्यक्ति का जीवन में भय मुक्त होता है, धार्मिक व्यक्ति के जीवन में भय और चिंताएँ नहीं रहती हैं ।
अमेरिका के सुप्रसिद्ध मनःशास्त्री ‘प्रो. डोलार्ड’ ने सर्पदंश के कई मृतकों का Postmortem किया, तो पता चला कि उनमें से अधिकांश व्यक्ति भय से ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। कुछ को तो किसी कीड़े ने काटा था, जिनमें कोई जहर ही नहीं होता, मात्र एक दो व्यक्ति ऐसे थे, जिनकी मृत्यु सर्प के वास्तविक जहर के कारण हुई थी।
दोस्तों भय; बेमौत मरने और अकारण घाटा उठाने और काल्पनिक विपत्ति से स्वयं ही लड़ मरने का एक बेकार तरीका है। किसी विद्वान ने सच ही कहा है— “डरपोक पग-पग पर मृत्यु के झूले में झूलता है, जबकि साहसी को समय आने पर एक बार ही मरना पड़ता है।”
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