तुम कर्तव्य कर्म को अपना लक्ष्य बनाकर उसके लिए पुरुषार्थ करो ~ You Just Act~ Motivation Hindi

 आप तो मात्र कर्म कीजिए

सब जंजालों से बचने का एक मात्र तरीका यह है कि तुम कर्तव्य कर्म को अपना लक्ष्य बनाकर उसके लिए पुरुषार्थ करो | तुम सिर्फ कर्म करो |

तुम्हें देखना यह भी पड़ेगा कि जो तुम चाहते हैं उसके लिए आवश्यक साधन जुटाए भी जा सकते हैं या नहीं । परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव कई बार बड़ा विलक्षण बन जाता है। घटनाएँ कई बारे ऐसे अप्रत्याशित रूप से घटित होती है कि नजदीक आई सफलता उलट कर असंभव बन जाती है। ऐसे उलट फेर तुम्हारे हाथ से बाहर होते हैं। 

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इस संसार में परिस्थितियों की अनेकों धाराएँ बहती रहती हैं। आँधी-तूफान की तरह कई बार उनका रुख हमारी दिशा में बहुत सहायक होता है और कई बार इतना विपरीत होता है कि एक कदम भी आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है। साहसी, सद्गुणी, और क्षमता संपन्न व्यक्ति भी इन विपरीत परिस्थितियों में असहाय हो जाता है जो सोचा गया है जिसके लिए प्रयास किया गया है वह अवश्य ही पूरा होकर रहेगा, इसका कोई निश्चय नहीं।

ऐसी अनेकों विडंबनाएं होती हैं जिनमें तुम घिरे और जकड़े रहते हो। आकाँक्षा और पुरुषार्थ की प्रबलता होते हुए भी अनेक कारण ऐसे हैं जो सफलता की बात सुनिश्चित नहीं रहने देते है। यों तो अच्छे प्रयासों का परिणाम तो होता ही है और बहुत बार सफलताएं भी उसी के आधार पर मिलती हैं। किंतु इतने पर भी यह दावा नहीं किया जा सकता कि हर सुयोग्य और हर प्रतिभाशाली प्रयत्न करने वाले को सफलता उतनी मात्रा में मिल ही जाएगी जितना कि सोचा या चाहा गया है।

जब तुम्हें असफलता मिलती है, तो यह तुम्हारे मन पर आघात करती है। उससे तुमको निराशा होती है और खीझ भी। कई बार तो यह आघात इतना गहरा होता हैं कि तुम्हारे लिए भविष्य में कुछ करने की हिम्मत जुटाना भी कठिन हो जाता है। कई बार तुम बेतरह टूट जाते हो और अपने भाग्य को कोसते हुए यह मान लेते हैं कि तुम्हारा भविष्य अंधकारमय है। जब तुम्हारी ऐसी मनः स्थिति होती तब तुम्हारे लिए न तो उत्साहवर्धक सोचते बनता है और न हिम्मत के साथ कोई बड़े कदम उठाने का साहस होता है। जब तुम्हारा अंतर मन ही खोखला हो गया है तो बहार की दुनिया में तुम पुरुषार्थ भी कैसे करोगे। और जहाँ भीतर बाहर अवसाद छाया हुआ हो वहाँ तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य का सूर्योदय कैसे होगा।

असफलताएँ तुम्हारे दुर्बल मन पर ऐसा अभिशाप पटक जाती हैं जिनके कारण तुम सचमुच गई गुजरी स्थिति में दिन काटने के दुर्भाग्य के साथ समझौता कर लेते हो | तुम  निराशा भरी मनःस्थिति में जिंदगी के दिन पूरे करते रहते हो।

इन सब जंजालों से बचने का एक मात्र तरीका यह है कि हम कर्तव्य कर्म को अपना लक्ष्य निर्धारित करें और उसके लिए किए गए पुरुषार्थों को ही सफलता जितना आनंद उपहार स्वीकार कर लें। सचमुच कर्तव्य धर्म में उत्साह और आनंद पूर्वक निरत रहने वाली निष्ठा को अक्षुण्ण बनाए रखना एक उच्चकोटि की भावनात्मक सफलता को आनंददायक और संतोषजनक मान लिया उसे दृश्यमान सफलता के मिलने न मिलने की चिंता नहीं रहती। वह अपने प्रयास-पुरुषार्थ की उत्कृष्टता को ही सफलता मानकर संतोष कर लेता है और हर भले बुरे परिणाम को खिलाड़ी की हार-जीत मानकर मुसकराते हुए स्वीकार करता रहता है। कर्तव्य कर्म में निष्ठावान होना ही मानवी पुरुषार्थ की चरम सीमा है।  आतुर फल की आशा जब निराशा में बदलती है तो आदमी को आसमान से गिरकर पाताल में जा टकराने जितना कष्ट होता है। कई बार तो उसकी हड्डी - पसली इस बुरी तरह टूटती हैं कि भविष्य के लिए अपंग ही बनकर रह जाता है।

स्थिति का विश्लेषण करने वाले महँ ऋषियों ने हमारे लिए सुरक्षित एवं सुनिश्चित मार्ग यह बताया हैं कि सफलता के लिए लक्ष्य निर्धारित करो - उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ करें, साधन जुटाएँ इतने पर भी निर्दिष्ट फल मिल ही जायगा इसके सम्बन्ध में प्रस्तुत अनिश्चितता को भी ध्यान में रखें और इसके लिए अपनी मनोभूमि को तैयार रखें कि मनोरथ पूरा न हुआ तो भी बिना खीझ और निराशा के उसका स्वागत किया जाएगा।

इस प्रकार की संतुलित मन की स्थिति केवल उन्हें ही प्राप्त हो सकती है जो कर्तव्य कर्म को अपनी सीमा मर्यादा मान लें और उसके लिए जो तत्परता बरती गई है उसे संतोष जनक समझें । सफलता को मनुष्य के गौरव की कसौटी नहीं माना जा सकता । प्रतिष्ठा उनकी कर्तव्य निष्ठा के साथ जुड़ी रहती है । असफल व्यक्तियों की सूची में वे समस्त महामानव गिने जा सकते हैं जिन्होंने उच्च आदर्शों के लिए अत्यंत कष्ट सहे और सदुपयोग के लिए बलिदान हो गए।

इसी तरह अनीतिपूर्ण दुष्ट-दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाकर ढेरों सफलताएँ पाने वालो की संख्या में कमी नहीं है। आज तो बहुत बड़ी संख्या उन्हीं की है। इन सफल लोगों को पदार्थ एवं परिस्थितियाँ मिल गई सो ठीक है। पर उन्हें आत्म-संतोष कहाँ मिल सका है ? ईश्वर और समाज की दृष्टि में भी वे घृणित ही है और रहेंगे। इतनी बड़ी हानि उठाकर जिन्होंने कुछ भौतिक लाभ उठा लिया उन्हें सफल या सौभाग्यशाली नहीं कहा, माना जाना चाहिए।

कर्तव्य कर्म पूर्णतया तुम्हारे हाथ में हैं उसे तुम पूरी ईमानदारी एवं तत्परता के साथ कर सकते हो। अपने हिस्से के अपने हाथ का काम पूरा कर लिया जाना इतना ही संभव भी है और इतना ही पर्याप्त भी।

 

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