प्रगति की इच्छा ही नहीं करें उसके लिए प्रयास और पुरुषार्थ भी करें ~ Make Effort for Success ~ Motivation in Hindi

 प्रगति की इच्छा ही नहीं करें उसके लिए प्रयास और पुरुषार्थ भी करें

Make Effort for Success

विकास एक मानवी आवश्यकता है। यदि वह सम्पन्न न हुआ, तो मनुष्य के पशु स्तर का ही बना रहेगा। जब वह भौतिक क्षेत्र में सम्पादित होता है, तो व्यक्ति को धनवान्, विद्वान और प्रतिभावान बनाता है। इसके अध्यात्म क्षेत्र से सम्पन्न होने से आदमी ज्ञानवान और विभूतिवान् बनते हैं। सभ्यता और संस्कृति इसी की देन हैं।

यह सच है कि प्रगति के लिए प्रयास अनिवार्य है पर मिथ्या यह भी नहीं कि इसके लिए अवस्था - बोध का होना नितान्त आवश्यक है। आस्पेन्स्की अपनी पुस्तक ‘ दि साइकोलॉजी ऑफ मैन्स पोसिबल इवाल्यूशन ‘ में लिखते हैं कि जिस पल व्यक्ति को यह आभास होता है कि वह सुषुप्तावस्था में पड़ा है, उसी क्षण उसके जागरण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। सुषुप्ति का अनुभव किये बिना जाग्रति संभव नहीं।

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इसी आशय का को प्रकट करते हुए ई. एल. मिलार्ड ने अपनी रचना ‘ दि प्रोग्रेसिव इवोल्यूशन ‘ में लिखा है कि आदमी यदि गरीबी में ही आनन्द की अनुभूति करने लगे, तो शायद उसकी भौतिकी प्रगति कभी भी न हो, कारण कि उत्कर्ष के लिए अभाव एवं असंतोष की प्रतीत जरूरी है।

बीमार को अपनी बीमारी का अहसास ही न हो, तो भला उसका क्या उपचार हो सकता है ! पतन - निवारण के लिए पतनोन्मुख अवस्था का आभास होना चाहिए। शत्रु पक्ष के बदलते तेवर भाँपकर ही सुरक्षा - तंत्र मजबूत करना और चौकसी बढ़ानी पड़ती हैं इससे कम कीमत पर राष्ट्र - रक्षा सम्भव नहीं। यदि आज की स्थिति को ही यदि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि मान लिया गया, तो कल की दशा में सुधार की गुँजाइश ही समाप्त हो जाएगी।

आत्मिक प्रगति न तो जप से संभव है, न ध्यान से। वे तो मात्र एक तत्त्वदर्शन हैं , जो इस बात की प्रेरणा देते हैं कि हमें परम-सत्ता से घनिष्ठता स्थापित करनी चाहिए। यह घनिष्ठता ईश्वरीय अनुशासन को कठोरतापूर्वक अपनाकर ही सम्पन्न की जा सकती है, इससे कम में नहीं। पूजा - पाठ, जप - ध्यान इसी की स्मृति और प्रतीत कराते हैं। आत्मिक प्रगति में इनका इतना ही योगदान हैं यह केवल कहने भर की बात है कि आध्यात्मिक कर्मकाण्ड पर करते रहने भर से व्यक्ति आध्यात्मिक बन जाता है और यह भी अत्युक्तिपूर्ण है कि धार्मिक वातावरण में रहने मात्र से आदमी बिलकुल सात्विक बन जाएगा। वास्तव में श्रेष्ठ और सात्विक बनने की प्रक्रिया तब तक अधूरी मानी जाएगी, जब तक उसे प्रति वास्तविक हूक न उठे, अन्यथा जीवनभर गंगाजल का पान और स्नान करने वाले भी अपने कलुषित मन को कहाँ धो पाते हैं ? गंगा जल सेवन और उसमें निमज्जन आज औपचारिकता मात्र बनकर रह गई है। इस दिशा में यदि हमारा संकल्प प्रबल और श्रद्धा हो, तो उसके पूरा होने में विलम्ब भी नहीं लगता, पर विडम्बना यह है कि निर्विकार बनने की हमारी कामना ही सच्ची नहीं है। यदि इसमें हम तनिक भी ईमानदार होते, तो हमारे कर्तृत्व में विरोधाभास नहीं दिखलाई पड़ता। तब एक और हम महानता का प्रदर्शन करते हुए क्षुद्रता का वरण नहीं करते। यह इस बात की परिचायक है कि हम उदात्त दीखना भर चाहते हैं, बनना नहीं। आत्मविकास इस ओछी मानसिकता द्वारा संभव नहीं।

जहाँ तक भौतिक विकास की बात है, तो इसमें दो मत नहीं कि वहाँ भी इच्छाशक्ति चाहिए। केवल प्रगति की बात सोचते और कहते रहने से ही यदि यह संभव होती, तो फिर दरिद्रता नाम की कोई चीज इस दुनिया में नहीं होती। इस जगत का यह विधान है कि यहाँ कुछ भी बिना किये होता नहीं हमें चलना है तो उठकर खड़ा होना पड़ेगा और पग बढ़ाने पड़ेंगे । बातचीत करनी है, तो जीभ हिलानी ही पड़ेगी। अस्तु यह कहना ठीक ही है कि सम्पत्तिवान बनने के लिए प्रयास से पूर्व उसकी इच्छा जाग्रत होनी चाहिए। इच्छा और क्रिया के समन्वय से वह पुरुषार्थ बन पड़ता है, जिससे व्यक्ति ही नहीं, समाज और राष्ट्र भी समृद्धिशाली बनते हैं। इन दिनों समृद्धि अर्जन का एक सरल उपाय भ्रष्टाचार माना जाता है। इससे पैसा तो कमाया जा सकता है, पर वह पुरुषार्थहीन अनीति की कमाई होने से उसके साथ असंतोष जुड़ा होता है। ऐसी सम्पदा अशान्ति और विपत्ति ही पैदा करती है, अतः उससे परहेज करना चाहिए।

प्रति की आकांक्षा करना अच्छी बात है। मनुष्य मात्र की यह नियति है उसके लिए तद्नुरूप प्रयास और पुरुषार्थ होने चाहिए, तभी वह साकार हो सकती है, अन्यथा शेखचिल्ली के सपने से बढ़कर वह ज्यादा कुछ और साबित न हो सकेगी।

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