श्रीराम शर्मा आचार्य जी का सतयुग लाने के लिए आप सबसे अनुरोध ~ Shri Ram Sharma Acharya

 श्रीराम शर्मा आचार्य जी का सतयुग लाने के लिए आप सबसे अनुरोध |

दोस्तों गायत्री परिवार के संस्थापक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते है |

मैं लूंगा, दूसरे को नहीं दूंगा, तुम इस नीति को छोड़ दो |

सदियों से तुम लोग तुच्छ स्वार्थों को अपना लक्ष्य मानकर अनर्थ करते रहे हो।

मैं लूँगा, दूसरे को न दूँगा” की नीति से कलह के बीज बोते रहे हो | 

और तुमने दुनिया में रक्तपात फैलाया है।

क्या मिला तुम्हें इस दुनिया को नरक बना कर |

क्या नहीं जानते सिकंदर जैसा भी अपने साथ कुछ न ले जा सका |

जब मारा तो खली हाथ था | तुम्हारी तो औकात ही क्या है |

मैं लूँगा, दूसरे को न दूँगा” की नीति आज इस सीमा तक बढ़ गई है|

इतनी व्यापक हो गई है कि संसार एक मिनट भी चैन से व्यतीत नहीं कर पा रहा है।

एक युद्ध समाप्त नहीं होता है, दूसरा महायुद्ध सिर पर आ गरजता है।

तुम बलवान होकर भी निर्बलों को सताते हो |

किन्तु तुमको भी चैन नहीं है |

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आखिर तुमसे भी बलवान कोई सत्ता है |

जो उसी प्रकार तुम्हारे साथ करती है, जैसा तुमने दूसरे निर्बलों के साथ किया है |

इस छीना-झपटी की नीति के कारण छोटे से लेकर बड़े तक,

निर्बल से लेकर बलवान तक किसी को चैन नहीं।

कुकर्म और दण्ड, अत्याचार और दुःख, एक दूसरे से बंधे हुए हैं।

इनके ताने-बाने में उलझा हुआ संसार

बेचैनी और पीड़ाओं से बुरी तरह चीत्कार कर रहा है।

जब मानव जाती ईश्वर से इसका कारण पूछती है तो वह कहता है |

यह तुम्हारे उलटा चलने का यही परिणाम है।

तुम्हारी नीति होनी चाहिये- “मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए।”

यही वो नीति है जिसके आधार पर सुख और शान्ति का होना सम्भव है।

 

 

मैं लूँगा, आपको नहीं दूँगा।” की नीति को कैकेई ने अपनायी थी |

और क्या हुआ था नहीं जानते तुम ?

अयोध्या को नरक बना दिया था।

सारी नगरी विलाप कर रही थी।

दशरथ ने तो प्राण ही त्याग दिये।

राजभवन मरघट की तरह शोकपूर्ण हो रहा था।

राम जैसे निर्दोष तपस्वी को वनवास ग्रहण करना पड़ा।

किन्तु जब ‘मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए’ की नीति व्यवहार में आई |

तब दूसरे ही दृश्य उपस्थित हो गये।

राम ने राज्याधिकार को त्यागते हुए भरत से कहा-

बन्धु, तुम्हें राज्य सुख प्राप्त हो, मुझे यह नहीं चाहिए।

सीता ने कहा- नाथ, ये राज्यभवन मुझे नहीं चाहिए, मैं तो आपके साथ रहूँगी।

सुमित्रा ने लक्ष्मण से कहा-

जो पै राम सीया वन जाहीं। अवध तुम्हार काम कछु नाही।”

पुत्र! जहाँ राम रहें वहीं अयोध्या मानते हुए उनके साथ रहो।

कैसा स्वर्गीय प्रसंग है।

भरत ने तो इस नीति को और भी सुन्दर ढंग से चरितार्थ किया।

उन्होंने राजपाट में लात मारी

और भाई के चरणों से लिपट कर बालकों की तरह रोने लगे।

भाई! मुझे नहीं चाहिए, इसे तो आप लीजिए।

राम कहते है- भरत मेरे लिए तो वनवास ही अच्छा है।

राज्य-सुख तुम भोगो।

त्याग के इस सुनहरी प्रसंग में स्वर्ग छिपा हुआ है|

एक परिवार के कुछ व्यक्तियों ने त्रेता को सतयुग में परिवर्तित कर दिया।

सारा अवध राज्य सतयुगी रंग में रंग गया।

वहाँ के सुख सौभाग्य का वर्णन करते-करते वाल्मिकी और तुलसीदास थकते नहीं हैं।

अब ‘मैं लूँगा’ की नीति सदा के लिए समाप्त होकर ‘आप लीजिए’ की सुनहरी प्रभात होने वाली है।

ईश्वर ने मनुष्य को इसलिए इस पृथ्वी पर नहीं भेजा है कि वे एक दूसरे को लूट खाएं

और आपस में रक्त की होली खेलें।

बालकों को यह सत्यानाशी खेल खेलते हुए पिता अधिक देर तक नहीं देख सकता।

वह अब उनका हाथ रोकेगा और बतायेगा की मूर्खों!

तुम्हारा काम यह नहीं है जो आज तुम कर रहे हो।

अब उलटी चाल को छोड़ो और सीधी चलो।

यह सीधी चाल यह है कि

हर व्यक्ति “मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए।” की नीति ग्रहण करें।

इस नीति के आधार पर विश्व की वह पेचीदा गुत्थी

जिन्हें सुलझाने में आज बड़े-बड़े ऊँचे दिमाग असमर्थ है,

थोड़ी ही देर में सुलझ जाएगी |

और शान्ति सुव्यवस्था का मार्ग, जो इस समय बहुत ही कंटकाकीर्ण प्रतीत होता है|

बहुत आसानी से हो जायेगा।

सतयुग तुम्हें यही एक मंत्र देता है।

इस मंत्र का अनुष्ठान करके तुम सतयुग को बुला सकते हैं।

देश-देशान्तरों में फैले हुए अखण्ड-ज्योति के हजारों पाठक-पाठिकाओं से

मेरा अनुरोध है कि वह सतयुग को समीप लाने के लिये तपस्या करने में जुट जावें।

हमारी आवाज जहाँ तक पहुँच सकें, वहाँ तक सत्य, प्रेम और न्याय का सन्देश पहुँचावें।

स्वयं सत्य के उपासक बनें और दूसरों को बनावें।

अपने जीवन को उदार एवं पवित्र बनाते हुए दूसरों को सन्मार्ग पर प्रवृत्त करने का प्रयत्न करें।

अपने जीवन में इस नीति को स्वीकार कर लें, कि “मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए।”

इसी नीति की शिक्षा पड़ोसियों को दें।

 इस प्रकार यह भूमण्डल शीघ्र ही स्वर्ग के सतोगुणी प्रकाश से भर जायेगा।

उस शुभ घड़ी को निकट लाने के लिए समस्त बन्धुगण प्रयत्न करें,

ऐसा आज हमारा आपसे विनम्र अनुरोध है।

 

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