प्रतिभा पाई नहीं कमायी जाती है ~ Talent is not Earned ~ Motivation Hindi

 IS TALENT INNATE OR ACQUIRED?

प्रतिभा पाई नहीं कमायी जाती है।

प्रतिभा पाई नहीं कमायी जाती है।

प्रतिभा जन्मजात प्राप्त नहीं होती है

प्रतिभा के लिए पैतृक विशेषताएँ जिम्मेदार नहीं होती हैं।

जो बच्चे जन्म से ही मेधावी दिखाई पड़ते हैं,

श्रम का पल्ला छोड़ बैठने पर उनकी वह विशेषता मर जाती है।

इसके विपरीत जन्म से ही बुद्धि की दृष्टि से मन्द दिखाई देने वाले बालक,

अपने सतत् अध्यवसाय, प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं मनोयोग द्वारा असाधारण प्रतिभा के धनी बन जाते हैं।

यह चमत्कारिक परिणति वस्तुतः उन अनवरत प्रयत्नों की होती है,

जिनका महत्व प्रायः नहीं समझा जाता है

अथवा समझते हुए भी जिनकी उपेक्षा की जाती है।

कुछ अपवादों की बात अलग है,

अन्यथा सामान्य रूप से यह सिद्धान्त शत प्रतिशत सही है

कि विशिष्ट स्तर की प्रतिभा अर्जित करने के लिए विशेष प्रकार का पुरुषार्थ करना पड़ता है।

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जिम में जाए बिना-सतत् अभ्यास किए बिना कोई पहलवान कहाँ बनता है,

चाहे वह जन्म से कितना ही स्वस्थ एवं नीरोग क्यों न हो।

संगीत, गायन, वादन, कला, अभिनय आदि में दक्षता,

विशिष्ट स्तर के अभ्यास के उपराँत ही आती है।

आगे बढ़ने, ऊँचे उठने, प्रगति करने का एक ही शाश्वत मूलमन्त्र है-

प्रचण्ड पुरुषार्थ करना ।

संसार में जो जातियाँ एवं समाज सफल के शिखर पर चढ़े हैं|

उन्होंने इसी महामन्त्र को दिल में बसाया,

अपने व्यावहारिक जीवन का अंग बनाया।

फलतः उनकी कार्यक्षमता बढ़ती तथा बुद्धि निखरती गयी।

व्यक्तियों एवं जातियों दोनों ही के इतिहास इस बात के साक्षी हैं कि

प्रचण्ड अध्यवसाय, कर्मठता का परिचय देकर बौद्धिक क्षमता पैनी की जा सकती

तथा अवनति के गर्त से निकला जा सकता है।

प्रख्यात है कि कालीदास जन्म से ही महा मूर्ख थे।

पत्नी की प्रताड़ना ने उनके पुरुषार्थ को झकझोरा-प्रसुप्त आत्मविश्वास को जगाया।

आत्म-विस्मृति के कूप-मण्डूक से निकलते

तथा ज्ञान की अनन्य साधना का पल्ला पकड़ते ही संस्कृत के विद्वान बन गए,

उनकी कृतियाँ आज भी अनुपम, अतुलनीय तथा अमर बनी हुई हैं।

विद्वान वोपदेव भी बचपन में मन्दबुद्धि है,

पर अपने लगन एवं प्रयासों द्वारा उच्च कोटि के विचारक बने।

उल्लेख मिलता है कि विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन बाल्यावस्था में मन्दबुद्धि थे। पर उनमें लगन, अध्ययन के प्रति अपूर्व रुचि थी।

फलतः वे असाधारण प्रतिभा के धनी बने

तथा भौतिक विज्ञान के आविष्कारों के क्षेत्र में वह कर गए,

जिसका लोहा विश्व के मूर्धन्य भौतिकविद् भी मानते हैं।

उनके सापेक्षवाद के सिद्धान्तों की यथार्थ व्याख्या-विवेचना करना कितना कठिन, कितना दुष्कर जान पड़ता है, यह भौतिक वेत्ता भली-भाँति जानते हैं।

नाजियों को अपनी कौम पर गर्व था।

अपनी नस्ल एवं रक्त को वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे।

हिटलर का ऐसा विश्वास था कि जर्मनों का रक्त में सम्मिश्रण होने से

उनकी जातीय विशेषता समाप्त हो जाएगी।

नस्लवाद को अतिशय महत्व एवं प्रश्रय उसने इसीलिए दिया।

ऐसा ही कुछ विश्वास श्वेतों का है।

फलतः रंगभेद का विकृत स्वरूप इस चरम बुद्धिवादी युग में दिखाई पड़ रहा है।

पर यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं रह गयी है कि

अपनी प्रचण्ड कर्मठता का परिचय देकर पिछड़ी जातियाँ

एवं समाज प्रगतिक्रम में निरन्तर आगे बढ़ते जा रहे हैं

तथा उन्हें भी पीछे छोड़ते जा रहे हैं, जिन्हें अपनी नस्ल पर गर्व था।

प्रतिभा किसी बपौती नहीं वरन् पुरुषार्थ की चेरी है।

वह प्रसाद बरतने पर खो सकती है और प्रयत्नों द्वारा बढ़ायी भी जा सकती है।

भौतिक समृद्धि अभीष्ट हो अथवा विशिष्ट स्तर की प्रतिभा, तो इसके लिए सर्वप्रथम उस मनोवृत्ति से छुटकारा पाना होगा जो व्यक्ति को आलस्य, प्रमाद के पाश में बाँधे रहती है, उसे चंगुल से निकलने नहीं देती।

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