तुम अहंकारी नहीं आत्मविश्वासी बनो ~ don't be Arrogant, Be Confident ~ Motivation

 तुम अहंकारी नहीं आत्मविश्वासी बनो

अहंकार एक भारी विपत्ति

इस संसार की हर वस्तु में अच्छाई के साथ-साथ कुछ बुराई भी होती है|

सफलता की अच्छाई सभी लोग जानते है।

उससे अभीष्ट लाभ प्राप्त होता है,

दूसरे प्रशंसा करते हैं,

अपना हौसला जानते हैं,

इसलिए उसे सभी चाहते हैं, पसन्द भी करते हैं ।

सफलता में  एक छोटी बुराई भी छिपी हुई है,

यदि उससे सावधान नहीं रहोगे तो वह हानिकारक भी सिद्ध होती है ।

इस बुराई का नाम है अहंकार ।

सफलता पा कर तुम मदमत्त हो इतराने लगते हो |

तुम अपनी औकात भूल जाते है |

सफलता को पाकर तुम यह सोचने लगते हो |

मुझसे बड़ा बुद्धिमान कोई भी नहीं है,

मुझसे ज्यादा चतुर कोई नहीं है,

मेरे जैसा पुरुषार्थ कोई नहीं नहीं है,

मैं चुटकी बजाते ही, जो चाहे वह प्राप्त कर सकता हूँ ।

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इस बात को याद रखो |

आत्मविश्वास होना अलग बात है ।

वह तो एक आध्यात्मिक गुण है ।

पर अहंकार तो उससे सर्वथा भिन्न वस्तु है।

मोटे रूप में आत्मविश्वास तथा अहंकार एक से दिखते हैं |

पर उसमें जमीन आसमान जैसा अंतर रहता है ।

कायरता और अहिंसा बाहर से देखने में एक सी लगती है|

पर उनकी मनोदशा में दिन रात जैसा भेद रहता है ।

आत्मविश्वासी आत्मा की महत्ता मानते हुए भी सावधानी, परिश्रम, अध्यवसाय, परिस्थितियां, दूसरों का सहयोग, जागरूकता आदि बातों पर ही सफलता को अवलंबित समझता है और असफलता की परवाह न करके अपने सुनिश्चित पथ पर मजबूती से पैर बढ़ाना हुआ चला जाता है ।

आत्मविश्वासी अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहता है |

आत्मविश्वासी कठिनाइयों से तनिक भी विचलित न होता है

 

अहंकार इससे भिन्न वस्तु है ।

इसे ‘ मद ‘ इसलिए कहा गया है कि

नशीली चीजें खाकर जिस प्रकार उन्मत्तता आ जाती है,

उसी प्रकार एक छोटी सफलता पा कर मनुष्य सोचने लगता है कि

मैं ही सब कुछ हूँ , मुझमें कोई त्रुटि नहीं, मेरी बुद्धि सारी दुनिया से बढ़कर है ।

जो चाहूँ सो चुटकी बजाते पूरा कर सकता हूँ ।

भगवान को मनुष्य के दुर्गुणों में सबसे अप्रिय अहंकार है।

अहंकारी के मन के सब सद्गुण उसी प्रकार विदा होने लगते हैं

जैसे तालाब का पानी सूखने पर उसके तट पर रहने वाले पक्षी अन्यत्र चले जाते हैं।

अहंकार से अन्य दुर्गुणों का पोषण होता है

और घमंडी आदमी में वे सब बुराइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं,

जो गुंडों या आसुरी जीवों में होती हैं।

असुर या गुंडों का अहंकार आरंभ में विकृत होता है,

इसके पश्चात् वे दूसरों को तुच्छ समझते हुए उनकी हर क्रिया में अपना अपमान देखने लगते हैं और

उसका प्रतिशोध लेने के लिये जहरीले साँपों की तरह अनर्थ करने पर उतारू हो जाते हैं।

अहंकार की उद्धतता मनुष्य के ओछेपन का चिन्ह है।

महानता व्यक्ति के झुकने और नम्र बनने में है।

उन्नति और सुधार उसी का संभव है,

जो अपनी त्रुटियों और दुर्बलताओं को जानता है।

जो अपने को सर्वोपरि मान बैठा है उसे सुधार को बात सोचने का अवसर ही कहाँ है?

ऐसे मनुष्य हवा भरे हुए पानी के तरह

अंत में उपहास के पात्र बनते हुए नष्ट ही हो जाते हैं।

इसलिए ज्ञानी लोग अहंकार को बहुत ही हेय मानते रहे हैं।

हर बार सफलता प्राप्ति के समय

तुम्हें यह आत्म निरीक्षण करते रहना चाहिए कि

कहीं इससे हमारा अहंकार तो नहीं बढ़ा?

यदि बढ़ा तो सोचना चाहिए की लाभ की अपेक्षा हमारी हानि ही अधिक हुई है। अहंकार को एक भारी हानि ही नहीं विपत्ति भी मानना चाहिए।

 

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