चंद्रगुप्त मौर्य की कहानी (अनाथ बालक से राष्ट्र नायक) ~ भारतीय इतिहास Chandragupta Maurya

 ईसा से साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व की बात है। मगध की राजधानी पाटलिपुत्र का एक अहीर जब अपने बाड़े में गाय-भैंसों को चारा-पानी देने के लिए घुसा तो एक शिशु का रुदन स्वर सुनाई दिया। वह उसी आवाज की ओर दौड़ा गया। देखा एक नवजात शिशु पड़ा हुआ बिलख रहा था। शायद अपने उस दुर्भाग्य पर जिसके कारण उसे जन्म के तुरंत बाद ही अपनी मां से बिछुड़ना पड़ा था।

अहीर ने आस-पास देखा। शायद उसकी मां यहीं कहीं हो, तो देखा पीछे के दरवाजे में एक स्त्री तुरंत मुड़ी और बड़ी तेजी से चली गयी। अहीर ने फिर भी उस स्त्री का मुंह देख लिया और पहचान गया कि यह मगध के एक सरदार की धर्मपत्नी है। जिसका पति युद्ध में मारा गया था। कुछ ही दिन पूर्व की तो बात थी। तब वह स्त्री अपना वैधव्य काटने के लिए अपने भाई के पास आयी थी।

भाई ने अपनी एकमात्र बहन को संरक्षण और सम्मान दिया। उसका प्रसव काल निकट ही था तब भाई को चिंता होने लगी। बेचारा अपना पेट ही तो बड़ी मुश्किल से भर पाता था फिर बहन के बच्चे का भार कैसे उठाता। परंतु उसने अपनी चिंता को व्यक्ति नहीं किया।

बहन भी समझदार थी इसलिए उसने अपने बच्चे को किसी अच्छे घर के आस-पास छोड़ आने का निश्चय कर लिया ताकि उसका भली-भांति पालन-पोषण हो सके। यही सोचकर वह प्रसव के बाद अपनी ममता का बंधन तोड़कर नवजात पुत्र को उक्त अहीर के बाड़े में छोड़ने के लिए आयी थी। वह जानती थी कि यह अहीर दयालु है। इसलिए बच्चा अच्छी तरह यहीं पल सकेगा और आंखों के सामने भी रहेगा।

यही बालक आगे चलकर चंद्रगुप्त मौर्य के नाम से भारत राष्ट्र के सम्राट पद पर बैठा और अपना ही नहीं देश का नक्शा भी बदल कर रख दिया। चंद्रगुप्त के पिता मौर्य वंशीय क्षत्रिय थे। जब वह गर्भ में था तभी वे एक लड़ाई में मारे गए। बचपन से ही बालक चंद्रगुप्त को विपत्तियां और कठिनाइयां देखनी पड़ी।

जिस अहीर के पास मां ने अपने बेटे को छोड़ा था वह भी बड़ा लोभी निकला। चंद्रगुप्त जब बड़ा हो गया तो गांव में एक दिन कोई शिकारी आया। चंद्रगुप्त अपने घर के सामने ही खेल रहा था। दूध मिलता था खूब पीने के लिए और दिन भर खेलना-कूदना। बेफिक्री और अच्छे भोजन ने चंद्रगुप्त को परिपुष्ट शरीर प्रदान किया। शिकारी निःसंतान था इसलिए उसने निश्चय किया कि इस बच्चे को अपना बेटा बनाना चाहिए।

शिकारी ने आस-पास के पड़ोसियों से चंद्रगुप्त के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि यह बालक उस अहीर का अपना बेटा नहीं है और प्रयत्न किया जाय तो असंभव नहीं है कि वह उसे देने के लिए राजी हो जाये। शिकारी ने समझ-बूझ से अहीर के सामने इच्छा व्यक्त की। अहीर ने कह दिया कि चंद्रगुप्त पर किया गया अभी तक का खर्च कोई चुका दे तो वह उसे चुकाने वाले को सौंप देगा।

शिकारी ने अहीर को काफी धन देकर चंद्रगुप्त को अपने साथ ले जाने के लिए तैयार कर लिया। जब चंद्रगुप्त की मां को यह सब पता चला तो वह बड़ी दुखी हुई। अब तक तो वह अपने बेटे को देख कर ही संतोष कर लिया करती थी। परंतु वह अब उसकी आंखों से भी ओझल हो रहा था। किसी तरह उस बेचारी ने अपना मन मार लिया और चंद्रगुप्त शिकारी के साथ चला गया। शिकारी भी अच्छा धनवान था। काफी संपत्ति और पशुधन था उसके पास। शिकारी ने उसे पिता का प्यार दिया। जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वयं को और भी सुखी तथा निश्चिंत अनुभव करने लगा।

शिकारी के साथ रहकर चंद्रगुप्त कई गुण और शस्त्र विद्या सीख गया। कुछ बड़ा होने पर वह भी अपने नये पिता के मवेशी चराने लगा। साथ में दूसरे ग्वालबाल भी होते। ढोर तो इधर-उधर चरते रहते और चंद्रगुप्त अपने साथियों के साथ तरह-तरह के खेल खेला करता। कभी राजा-प्रजा का, कभी चोर-सिपाही का। अच्छे डीलडौल और वय में भी बड़ा होने के कारण इन खेलों में मुख्य पात्र तथा निर्णायक चंद्रगुप्त को ही बनाया जाता था। एक दिन की बात है ग्वालबाल साथियों के साथ वह राजा-प्रजा का खेल खेल रहा था। पास से ही गांव की ओर एक सड़क जाती थी। उस सड़क पर से निकला एक क्षीणकाय दुर्बल ब्राह्मण।

बालकों को राजा-प्रजा का खेल खेलते देख कौतूहल वश वह वहीं रुक गया। मनोरंजन की दृष्टि से वह राजा बने चंद्रगुप्त के पास पहुंचा और नाटकीय निवेदन किया—‘‘महाराज, मैं गरीब और अनाथ ब्राह्मण हूं।’’

‘‘हां, हां! बोलो क्या चाहिए’’—राजा बने चंद्रगुप्त ने कहा।

‘‘कुछ गायें मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी हो’’—उस ब्राह्मण ने कहा।

‘‘ले जाओ’’—पास चर रही गायों की ओर इशारा करते हुए चंद्रगुप्त ने कहा—‘‘जितनी चाहिए ले जाओ।’’

‘‘इनका मालिक मुझे पकड़ कर मारेगा’’—ब्राह्मण ने और भी रस लेते हुए कहा।

‘‘किसकी हिम्मत है जो सम्राट चंद्रगुप्त की आज्ञाओं का उल्लंघन करे’’—चंद्रगुप्त ने इस प्रकार उत्तर दिया जैसे सचमुच ही वह राजा हो और वह ब्राह्मण जो और कोई नहीं भारतीय नीति शास्त्र के पंडित चाणक्य थे, उस उत्तर से वे बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने बालक चंद्रगुप्त को एक उदीयमान प्रतिभा के रूप में देखा और लगा कि उनकी खोज पूरी हो गयी है।

उस समय चाणक्य किसी ऐसे युवक की तलाश में थे जिसे आगे कर वे भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित कर सकें। उस समय भारतवर्ष अनेक छोटे-बड़े राज्यों में बिखरा हुआ था। जिनके अधिपति राजा-महाराजा वीर तो थे परंतु अपने संकीर्ण स्वार्थों और संकुचित हितों के लिए ही परस्पर लड़ते-मरते रहते थे।

फूट और तज्जनित वैमनस्यता के कारण उन्हें अपने राष्ट्रीय हितों का भी ध्यान नहीं रहता था। उस समय भारत में चारों ओर धन संपदा बिखरी पड़ी थी। आपसी फूट और बिखराव से लाभ उठाकर विदेशी लुटेरे तथा सम्राट यहां आ आकर अपना भंडार भर लेते थे। विदेशी आक्रमण-धर और जन ही नहीं यहां की संस्कृति को भी लूटने और तहस-नहस करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे। यही कारण था कि चाणक्य को तक्षशिला का विद्यापीठ छोड़कर गांव-गांव भटकने के लिए विवश होना पड़ा।

पंडितों और ब्राह्मणों का एक महत् कर्तव्य यह भी है कि वे संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए अपने पद, गौरव और ऐश्वर्य को भूलकर प्राणपण से प्रयत्न करे। चाणक्य इसी कर्तव्य बोध से तक्षशिला का प्रतिष्ठित आचार्य पद छोड़कर पहले मगध सम्राट के पास पहुंचे थे। मगध उस समय भारत का सबसे बड़ा राज्य था। इस राज्य का राजा था नंद। चाणक्य ने नंद को सलाह दी कि वह बिखरे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधकर संगठित करे। परंतु नंद को तो अपने विलास भोगों से ही फुरसत कहां थी। इसलिए उसने चाणक्य को अपमानित कर अपने यहां से भगा दिया।

अब चाणक्य ने समझ लिया कि प्रस्तुत लक्ष्य किसी राजा या सम्राट से पूरा नहीं होगा। उसके लिए तो एक नयी ही शक्ति का उदय होना चाहिए जो देशप्रेम, वीरता, संघ निष्ठा और एकता के आधार पर उदित हो। चाणक्य स्वयं तो संन्यासी और धर्माचार्य थे। स्वयं राजनीति में प्रत्यक्ष भाग लेना उन्हें मर्यादाओं के विरुद्ध लगा इसलिए अपने किसी निष्ठावान शिष्य को यह उत्तरदायित्व सौंपकर इस अभियान का सूत्र संचालन ही उपयुक्त लगा और वे इसलिए योग्य शिष्य की तलाश में इधर-उधर भटक रहे थे।

चंद्रगुप्त में वह प्रतिभा देखकर उन्होंने शिकारी से संपर्क साधा और उसे अपने साथ ले जाने के लिए तैयार कर लिया। चाणक्य अपने नये शिष्य को लेकर तक्षशिला पहुंचे और वहां शस्त्र तथा शास्त्र दोनों सिखाने लगे। शासक स्तर के व्यक्ति को बुद्धि और शक्ति दोनों ही विभूतियों से संपन्न होना चाहिए। चाणक्य ने अपने ग्रंथों में स्थान-स्थान पर यह विचार व्यक्त किया है। शासक ही क्या सामान्य व्यक्ति के लिए भी बुद्धि-बल और शरीर बल दोनों का महत्व अपेक्षणीय है। चंद्रगुप्त ने सात-आठ वर्ष तक अपने योग्य और विद्वान गुरु के पास रहकर दोनों विभूतियां अर्जित कीं।

तक्षशिला में व्यतीत किया समय चंद्रगुप्त के भावी जीवन का आधार मजबूत करने और बनाने का कारण बना। चाणक्य ने अपने शिष्य को शस्त्र और शास्त्र में पारंगत बनाने के साथ-साथ उसके चरित्र गठन की ओर भी ध्यान दिया। चरित्र ही तो समस्त सफलताओं और सदुद्देश्यों को प्राप्त करने का मुख्य आधार है। इसके अभाव में बड़े-बड़े शक्तिशाली साम्राज्य और सम्राटों का नाश तथा पतन हुआ है। आदि काल से अब तक इस बात के कई उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं।

व्यक्तिगत जीवन में भी चरित्र को उतना ही अनिवार्य तथा उपयोगी माना गया है। साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए भी वह उतना ही उपयोगी है जितना कि उच्च प्रतिष्ठित और शासन तथा अधिकारियों के लिए क्योंकि चिरस्थायी शांति और अपने उत्तरदायित्व को समझने तथा उसे पूरा करने की क्षमता चरित्र साधना से ही तो उद्भूत होती है।

तभी ई.पू. 326-27 में भारत पर यूनान के सम्राट सिकंदर ने आक्रमण किया। यहां के राज्यों की आपसी फूट का लाभ उसे मिला और समूचा पश्चिमी भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया गया। उस समय चाणक्य चंद्रगुप्त को अपना स्वप्न साकार करने के लिए तैयार कर ही रहे थे। दूरदर्शी चाणक्य यह जानते थे कि आखिर भारत को वर्तमान परिस्थितियों और यहां के राजाओं की आपसी फूट के कारण एक न एक दिन अपनी स्वतंत्रता खोनी ही पड़ेगी।

यह अनुमान सही निकला। चाणक्य इससे संतुष्ट हुए क्योंकि पूर्व की स्थिति में छोटे-छोटे राजाओं से लड़कर अपनी समय और शक्ति को व्यर्थ ही खर्च करना पड़ता। अब सिकंदर के आक्रमण से कई राज्यों का एकीकरण हो गया तो उन पर विजय प्राप्त करने तथा अपना स्वप्न साकार करने में बड़ी आसानी रहेगी। अब चाणक्य और चंद्रगुप्त आगे की योजनायें बनाने लगे। चाणक्य ने अपनी कुशाग्र बुद्धि से विदेशियों को भारत से खदेड़ने की योजना बना ली। जिसके अनुसार एक बड़ी सेना का गठन किया जाना था। इधर सिकंदर की विजय ने सामान्य जनता का मनोबल तोड़कर रख दिया। सेना गठन के लिए इस मनोबल को पुनः जागृत करना आवश्यक था। गुरु और शिष्य मिलकर पंजाब भर में घूमे और वहां के लोगों को स्वतंत्रता तथा एक राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रेरित करने लगे। कई लोगों ने उनका साथ दिया। युवा और उत्साही व्यक्ति चंद्रगुप्त और चाणक्य की योजना के अनुसार सेना बनाने के लिए आगे आये।

सैन्य-संगठन का कार्य आरंभ होने भर की देर थी। चाणक्य और चंद्रगुप्त एक संत ब्राह्मण और दूसरा गरीब अनाथ—दोनों की आवाज ने कमाल दिखाया। लोग उनके आह्वान पर अपने घरों से खाना खाकर भूखे रहकर राष्ट्र की स्थापना के लिए आगे आये और अंत तक उनके साथ रहे।

इन युवकों को युद्ध विद्या का प्रशिक्षण दिया गया और एक अच्छी सेना तैयार हो गयी जिसका सेनापति बना चंद्रगुप्त। पंजाब की भूमि तो वैसे भी रणबांकुरे जवानों से भरी पड़ी थी। कमी थी तो योग्य नेतृत्व की। चंद्रगुप्त के रूप में अपना अगुआ नेता पाकर पंजाब के वीर जवानों ने यूनानियों को ललकारा और झेलम तथा व्यास नदी के आस-पास से विजय अभियान शुरू किया जो यूनानियों से घिरी हुई थी।

मरने-मारने के लिए कटिबद्ध पंजाबी सैनिक और राष्ट्र निर्माण के लिए आहुत जीवन चंद्रगुप्त और चाणक्य इन सबकी सम्मिलित शक्ति से तीन वर्ष के भीतर-भीतर भूमि यूनानियों से रहित हो गयी। विदेशी शासन का नामो-निशान मिट गया। विदेशियों को भारत भूमि से भगाकर चंद्रगुप्त का ध्यान अपने देश की अंदरूनी स्थिति पर गया। अभी तो आधे से अधिक काम बाकी पड़ा था। बुद्धि-कौशल और निष्ठावान सहयोगियों के बल पर चंद्रगुप्त को विश्वास था कि यह काम पूरा होकर रहेगा। जिस विश्वास के बल पर चार वर्ष पूर्व गुरु शिष्य दोनों खाली हाथ घर के निकले थे। वह बुद्धि कौशल ही था जो उन परिस्थितियों में भी इतना बड़ा सैन्य संगठन तैयार हो गया और मंजिल की आधी दूरी तय कर ली।

पश्चिमी भारत को सुरक्षित और कंटकहीन कर चंद्रगुप्त मगध की ओर मुड़ा। उस समय मगध के पास काफी बड़ी सेना थी। लगभग 2 लाख 25 हजार सैनिक मगध के राज्य की रक्षा का भार सम्हाले हुए थे। परंतु चाणक्य जानते थे कि मगध का राजा नंद वहां की जनता में बहुत अलोकप्रिय है। उसकी शासन व्यवस्था, चरित्रहीनता और घमंड से उसके स्वयं के परिजन, राजमहल के निवासी तक बड़े त्रस्त थे। इसलिए थोड़ी सूझबूझ से काम लिया जाये तो मगध को आसानी से जीता जा सकता है।

चाणक्य ने सैन्य बल की अपेक्षा बुद्धि बल से काम लिया और नंद के कई अधिकारियों को अपने पक्ष में कर लिया। अंदर से इतना सशक्त विरोध नहीं होगा यह जानकर चंद्रगुप्त अपनी सेनायें लेकर मगध पर टूट पड़ा। यद्यपि नंद के कई अधिकारियों ने चंद्रगुप्त की मदद की फिर भी मगध को जीतने में दो वर्ष का समय लगा। 321 ई.पू. चंद्रगुप्त ने अपनी सेनाओं सहित मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। नंद का शासन समाप्त हो गया था। राज्य सिंहासन पर चंद्रगुप्त को राजतिलक किया गया। इतनी बड़ी सफलता प्राप्त कर लेने के बाद भी चंद्रगुप्त में घमंड बिल्कुल ही नहीं आया। कहते हैं उसने अपने पालक-बचपन के अहीर पिता को ढुंढ़वाया और उसे पर्याप्त धन-दौलत दी ताकि वह सुख-चैन से जीवन बिता सके। कई अवसरों पर चाणक्य ने भी उसे फटकारा परंतु चंद्रगुप्त तो अभी सम्राट कम और शिष्य अधिक था। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य बन जाने के बाद उन्होंने अपने अभियान का अगला चरण पूरा करने के लिए कदम उठाया।

पंजाब, मगध और व्यास नदी के तटवर्ती प्रदेश तो अधिकार में आ ही गए थे अब मध्य भारत, दक्षिणी प्रांत और पूर्वी भारत को एक सूत्र में आबद्ध किया और भारत की नींव रखी। उस समय रचे गए ऐतिहासिक ग्रंथों में चंद्रगुप्त मौर्य का उल्लेख संपूर्ण जंबूद्वीप के सम्राट रूप में किया गया है। हिमालय से सागर तक और सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक एक राष्ट्र भारत और उसका निर्माता था—एक अनाथ, मातृ-पितृ हीन बालक।

सम्राट चंद्रगुप्त ने इतने बड़े साम्राज्य का अधिपति होते हुए भी कभी इस विचार को प्रश्रय नहीं दिया कि मैं अतुल धन संपदा और राज्य लक्ष्मी का स्वामी हूं। वह सदैव यही मानता रहा कि मैं प्रजा का सेवक मात्र हूं, अपने मार्गदर्शक महामति चाणक्य का विनम्र अनुगामी भर हूं। जो इतने बड़े राष्ट्र के गठन में प्रधान भूमिका निभाने तथा अतुल वैभव का उपभोग करने में समर्थ होते हुए भी शहर से बाहर एक साधारण सी कुटिया में रहते हैं। सर्वोच्च शासन पद पर रहते हुए भी इतना निर्लिप्त और अनासक्त जीवन जीवक चंद्रगुप्त मौर्य ने भारतीय इतिहास में एक स्वर्ण अध्याय अपनी कर्म लेखनी से लिख डाला।

यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार चंद्रगुप्त के शासन काल में लोग भी उतने ही सदाचारी और एक दूसरे का ध्यान रखने वाले हो गये थे। फिर भी शासन की ओर से किसी प्रकार की लापरवाही नहीं बरती जाती थी। चाणक्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र, जो राज्य व्यवस्था का प्रमुख मार्गदर्शक ग्रंथ माना जाता है, के अनुसार तथा चाणक्य के परामर्श से सारा राज-काज चलता था। सैन्य-संगठन तथा सुरक्षा व्यवस्था इतनी सुदृढ़ बनायी गयी थी कि बाहर का कोई भी शत्रु राष्ट्र की सीमा को बेध नहीं सकता था। इतिहास में चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में ही सिल्यूकस सिकंदर के आक्रमण का उल्लेख भी आता है परंतु उसे पराजित होकर ही जाना पड़ा। लगभग 24 वर्षों तक राज्य कर 297 ई.पू. चंद्रगुप्त का देहांत हो गया।

(यु.नि.यो. नवंबर 1974 से संकलित)

 

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