मैं कर सकता हूँ | I can do | the key to success and victory |

मैं कर सकता हूँ | I can do | the key to success and victory |

आप बहुत कुछ कर सकते हैं।

श्री हेनरी हैरिसन ब्राउन ने मनोविज्ञान के दो संकेतों का विस्तृत विश्लेषण किया है और उनका विचार है कि इन दोनों की शक्तियों को सही रूप में समझने वाला व्यक्ति ही संसार में विजयी हो सकता है। वे मनुष्य की समस्त मानसिक शक्तियों को इन दो संकेतों के पीछे पीछे आना मानते है।
1-मैं कर सकता हूँ (सफलता और विजय का मूलमंत्र)
2-मैं नहीं कर सकूँगा (मँझधार में ड्डबो देने वाला संकेत)

जब हम इन दोनों संकेतों में से किसी एक का उच्चारण करते हैं अथवा हमारा गुप्त मन इनमें से किसी को दृढ़ता से स्वीकार कर लेता है, तो हमारी मानसिक और शारीरिक शक्तियाँ भी उसी के इर्द गिर्द इकट्ठी होने लगती है। वे हमें वैसा ही उत्तर या सहयोग देती है।

मान लीजिए आप यह मानते है कि मैं यह कार्य कर सकता हूँ, तो इस संकेत के कारण आपके शरीर, मन, और आत्मा की सब उत्पादक शक्तियाँ एकत्रित होकर लक्ष्यपूर्ति के लिए तैयार हो जाती हैं। आप मन में एक गुप्त शक्ति का अनुभव करते हैं और आपकी शक्ति और सामर्थ्य बढ़ते जाते हैं। नए साहस और नए उत्साह से आप इच्छा पूर्ति के लिए अग्रसर होते हैं। इसी विश्वास के कारण आपके मार्ग से विघ्न बाधाएँ दूर होते जाते हैं।

दूसरी ओर यदि आप भूल से यह मान बैठे हैं कि मैं यह कार्य नहीं कर सकता तो इस गलत संकेत के कारण आप अन्दर ही अन्दर एक प्रकार की कमजोरी का अनुभव करेंगे शरीर ढीला पड़ जाएगा, इन्द्रियाँ जवाब देने लगेगी। कंधे झुक जायेंगे, कमर में दर्द मालूम होगा, सारी शक्तियाँ क्षय हो जायेंगी। आपके अन्दर ही अन्दर ऐसा लगेगा कि न जाने क्यों शरीर और मन गिरागिरा-सा लग रह है। काम में तबियत नहीं है।

पहला संकेत ‘‘मैं कर सकता हूँ’’ मनुष्य के आत्म-विश्वास को पुष्ट करता है, शक्तियों को जगाता है, उसे अपनी सिद्धि और सफलता पर विश्वास हो जाता है। इस सृजनात्मक विचार का शक्तिवर्धक प्रभाव हमारे शरीर के संगठन पर पड़ता है। इन निश्चित दृढ़ और आशा भरे विचारों से हमारा मुख मण्डल दमकता हुआ मालूम पड़ता है और हमारे सम्पूर्ण कार्य सजीव मालूम पड़ते हैं।

दूसरे संकेत ‘‘मैं कुछ नहीं कर सकूँगा’’ से निराशा के विचार हमारे गुप्त मन में छा जाते हैं, मुख मलीन हो उठता है और शरीर तथा मस्तिष्क की शक्तियों का ह्रास होने लगता है। इस तथ्य को प्रमाणित किया जा चुका है कि निराशा, अविश्वास, चिन्ता, और शोक इत्यादि हमारी अवांछनीय और दुर्बलता पैदा करने वाली मनः स्थितियाँ है। अपने प्रति अविश्वास का एक विषैला शब्द या वाक्य मानसिक संस्थान में ही गड़बड़ नहीं मचाता, बल्कि पूरे शरीर पर और विशेषतः हमारे हृदय पर दूषित प्रभाव डाल कर उसे कमजोर बना देता है। अनेक कच्चे मन वालों व्यक्ति को काल्पनिक बीमारियों से व्यर्थ ही परेशान रहा करते है। अपने प्रति कमजोर भावनाएँ रख कर रक्त के प्रवाह में रुकावट पैदा कर लेते है। रुधिर में विकार उत्पन्न हो जाता है और उससे उसकी पोषण शक्ति में भी विकार पैदा हो जाता है। मैं कमजोर हूँ, रोगी हूँ ऐसा कहने से तन्तुजाल में भी गड़बड़ी पैदा हो जाती है और इनसे शरीर के समस्त कार्यों में आँशिक शिथिलता आ जाती है।

कहाँ चींटी, कहाँ पक्षियों में सब से तेज उड़ने वाला पक्षी गरुड़। यदि चींटी गरुड़ की तेज रफ्तार को सोच सोचकर स्वयं अपनी धीमी गति से भी काम करना छोड़ दे,तो क्या वह कुछ कर सकती है? नहीं, चींटी स्वयं अपने पक्के निश्चय से ही जो कुछ बन पड़ता है, उतनी ही मात्रा में अपना कार्य करती जाती है, दूसरों से निरुत्साहित नहीं होती, फिर अपने लक्ष्य पर भी पहुँच ही जाती है। उसी प्रकार मनुष्य को अपनी छोटी शक्तियों को देखकर निरुत्साहित नहीं होना चाहिए। अपनी छोटी शक्ति से ही कार्य प्रारम्भ कर उसे पूर्ण करने का सतत उद्योग करना चाहिए।

आप शक्ति के साक्षात केन्द्र है। 
आप अपने आन्तरिक आत्मबल पर पूर्ण विश्वास रखते है। प्रत्येक कार्य आपकी इच्छा के अनुसार ही होता है। आत्मबल के अनन्त भण्डार से आप सब अभिलाषित कार्यों में सिद्धि पाते हैं। आप प्रबल इच्छाशक्ति से इच्छित वस्तुओं को प्राप्त करते हैं। आपकी इच्छाशक्ति बड़ी प्रबल है।