वाणी कितने प्रकार की होती है ? ~ Vani kitne prakar ki hai

 वाणी कितने प्रकार की होती है?

वाणी के चार स्तर हैं—(1) वैखरी (2) मध्यमा (3) परा (4) पश्यन्ति।
वैखरी जिह्वा से निकलती है और आमतौर से जानकारी देने के काम आती है। अध्यापक इसी के द्वारा छात्रों को विभिन्न विषय पढ़ाते हैं। दिनभर हाट बाजारों में इसी का प्रयोग होता है। गप्पबाजी, चुगलबाजी से लेकर तरह-तरह के भले बुरे प्रसंगों में सकारण-अकारण इसी कप प्रयोग होता रहता है। यह जीभ से निकलती है और मन को हल्का करने अथवा स्वार्थों का तालमेल बिठाने में काम आती है।

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दूसरी मध्यमा वाणी है जो चेहरे के प्रमुख अवयवों से फूटती है। आंखें, भौंहें, नथुने, कपोल, होंठ, गर्दन की हलचलों से भावनाओं का प्रकटीकरण होता है। वाणी के साथ इनकी भी गतिविधियां जुड़ती हैं और जो कहा जा रहा है उसमें वक्ता का अन्तराल किस सीमा तक किस स्तर पर संबद्ध है, इसका परिचय देती है। हो सकता है शब्द कुछ कह रहे हों और अन्तर में उसकी भिन्न प्रकार की स्थिति हो, यह मध्यमा से जाना जा सकता है। इसे एक प्रकार से अन्तराल का दर्पण कह सकते हैं। यह बिना शब्दोच्चारण के भी हाव-भावों द्वारा व्यक्तित्व का स्तर एवं मनःस्थिति का प्रकटीकरण करती रहती है। यदि प्रकृति किसी स्वभाव विशेष में परिपक्व हो गयी है तो चेहरा उसी ढांचे में ढल जाता है और देखते ही पता चल जाता है कि व्यक्ति का स्वभाव एवं स्तर क्या होना चाहिए। अनुभवी लोग आकृति देखकर मनुष्य में बहुत कुछ पढ़ लेते हैं और फिर तदनुरूप ही उसके साथ तालमेल बिठाते हैं। तीर्थ पुरोहित, शौकीनी का सामान बेचने वाले सेल्समैन इस सम्बन्ध में निपुण होते हैं। बे काम के और बेकाम के ग्राहक को शक्ल देखते ही पहिचान लेते हैं और तदनुरूप ही उनसे व्यवहार करते हैं।
तीसरी परावाणी वह है जो विचार धारा से सम्बन्धित है। जिन विचारों का जीवन पर प्रभाव होता है, जो विश्वास स्तर तक पहुंच चुके होते हैं, जिनके प्रति रुझान और पक्षपात होता है-वे स्वभाव के अंग बन जाते हैं और कार्य रूप में परिणित होते रहते हैं। परावाणी मस्तिष्कीय विचार कम्पनों के रूप में होती है। यह कम्पन विद्युत प्रवाह की तरह आकाश में भी भ्रमण करने के लिए निकल पड़ते हैं और सबसे प्रथम सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। इसे मस्तिष्क बोलते और मस्तिष्क ही सुनते हैं।
चौथी पश्यन्ती वाणी आत्मा से निकलती है और दूसरी आत्मा के साथ टकराती है। बल के अनुरूप हारती या जीतती है यह मनुष्य के अन्तःक्षेत्र में अवस्थित श्रद्धा, आस्था, आकांक्षा से सम्बन्धित है और समूचे व्यक्तित्व को अपने परिवार में लपेटे रहती है इसमें प्राण भरा रहता है। समीपवर्ती लोगों को अपने अनुरूप बनाने का आग्रह करती है। यह दुर्बल होने पर निष्फल भी रह सकती है पर यदि समर्थ हुई तो दबंगों को भी अपने चंगुल में जकड़ लेती है। ऋषि आश्रमों में जाकर सिंह भी अहिंसक हो जाते थे और गाय के साथ एक घाट पर पानी पीते थे।

यह पश्यन्ती वाणी का चमत्कार है। कुसंग और सत्संग से पड़ने वाले प्रभाव को इसी क्षेत्र की परिणति कहना चाहिए। वक्ताओं में से जिन्हें जानकारी भर देनी है उनके लिए स्कूली ढंग से अपने मन्तव्य का उपस्थित लोगों पर वाणी के माध्यम से प्रकट कर देना पर्याप्त है। इसके लिए वाचालता में कलात्मक पुट रहे तो उसकी सरसता बढ़ेगी। लोग पसन्द करेंगे और सहमत न होते हुए भी प्रशंसा तो करेंगे ही। इतने मात्र से लोकमानस का परिष्कार नहीं हो सकता। सुधारक को बिगड़े हुए से अच्छा होना चाहिए शिक्षा चिकित्सा कला कौशल आदि में ऐसा ही होता है। वरिष्ठ सिखाते और कनिष्ठ सीखते हैं। युग-सृजन की समूची प्रक्रिया दृष्टिकोण एवं व्यवहार को सुधारने की है। अस्तु शिक्षक का व्यक्तित्व इन दोनों ही क्षेत्रों में उनसे अधिक ऊंचा होना चाहिए, जिनसे सुधारने बदलने एवं सहमत होने की आशा अपेक्षा की गई है। अस्तु आवश्यक है कि भावनात्मक परिष्कार की शिक्षा देने वाला पुरोहित श्रवण कर्ता यजमानों की तुलना में वरिष्ठ हो। तभी उसकी मध्यमा परा और पश्यन्ती वाणियां मुखर होंगी और उनके दबाव से दृष्टिकोण एवं व्यवहार में आदर्शवादी परिवर्तन संभव हो सकेगा। Subscribe to Knowledge lifetime: https://bit.ly/372jJ9F Youtube: https://www.Youtube.com/Knowledgelifetime https://www.knowledgelifetime.com

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