क्या कंजूस, संग्रह वृत्ति के मनुष्य सदा परेशान रहते है? | Vedon ka Divya Gyan | Atmabal - 035 | Rigveda 10/117/1 |

 

भावार्थ:

धन की उपयोगिता दुखियों के आभाव दूर करने से है इसलिए उसे सदैव चलते रहना चाहिए | कंजूस, संग्रह वृत्ति के मनुष्य सदा कष्ट ही पाते हैं  | भय और आशंका बानी रहती है इसलिए अपनी आवश्यकताओं से बचा धन समाज को दे देना चाहिए |

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सन्देश:

ईश्वर ने मनुष्य को क्षुधा क्या दी है उसे मोत दे दी है | भूख, भूख और हर समय भूख | न जाने कितने प्रकार की भूख उसे सताती रहती है | पेट भरने को भोजन ही नहीं, धन-दौलत की भूख, पद-प्रतिष्ठा की भूख, इन्द्रियों की भूख, अहंकार की भूख उसकी मिटती ही नहीं है | संसार में जो कुछ भी है उसे वह अपने अधिकार में रखने को व्याकुल रहता है | इस प्रकार संग्रह वृति के स्वार्थी व्यक्ति सदैव कष्ट पाते है | धन के कमाने में, कमाकर उसे बढ़ाने में, फिर उसकी रक्षा और व्यय करने में, नाश और उपयोग में मनुष्य को भारी परिश्रम करना पड़ता है | हर किसी से भय, चिंता और भ्रम होता है | धन के कमाने में दुःख, कमाकर उसकी रक्षा में दुःख, धन का नाश हो जाये तो दुःख, खर्च हो जाए तो दुःख | हर प्रकार से यह दुःख का ही कारण बनता है |

 

धन की उपयोगिता संग्रह में नहीं उसके सदुपयोग में है | अपनी क्षुधा शांत करके शेष समाज को अर्पण कर देने में ही धन की सार्थकता है | तयागपूर्वक भोग करने का वेद का आदेश है | पहले दूसरों को खिलाकर फिर स्वयं खाओ जिसके पास है उसे जरूरतमंद लोगों को दे देना चाहिए | हम अकेले नहीं है वरन हमारा जीवन समस्त जनमानस के साथ जुड़ा हुआ है | हमारे ऊपर समाज का, राष्ट्र का एक ऋण है जो हमें चुकाना है | यदि हम इस तत्व को समझ जाएं तो हमारे मन से यह भय समाप्त हो जायेगा कि दूसरों को दान देने से धन घाट जाता है | हम जिस पात्र को धन देते है वह हमारा ही अंश है | उसे दान से जो एक आवश्यकता पूरी होती है उससे उन्नति होती है जो अंततः हमारे वक्तिगत सुख को बढ़ती है तथा धन की भी व्रद्धि करती है | जो व्यक्ति दूसरों को जरूरत के समय सहायता करता है उसे जरूरत पडने पर उदारतापूर्वक ईश्वरीय सहयोग प्राप्त होता है |

 

कंजूस व्यक्ति सदा समाज से कटे हुए एकाकी रहते हैं | उनका न तो कोई मित्र होता है और न ही कोई उन्हें सहायता देने को तत्पर होता है मनुष्य धन संग्रह में लगा रहता है पर वह जीवन के लिए इतना आवश्यक नहीं है | मुख्य तत्व तो है ज्ञान, बल, सुख, सोहाद्र, प्रेम आदि | यद्यपि यह सत्य है कि संसार में भूखे और पेट बहरे दोनों की ही समय पर मृत्यु होती है | दान देने वाले को तो अमूल्य जीवनदायी संपतियां मिलती है और उसका धन भी नहीं घटता जबकि न देने वाला व्यक्ति इन सबसे वंचित होकर, सुखहीन, मुर्दा सा, संकुचित जीवन बीतता है |

 

दान वही दे सकता है जिसमें पवित्र आत्मबल हो |     

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