स्वामी विवेकानन्द के अनुसार धर्म का अर्थ है
आत्मा को आत्मा के रूप में उपलब्ध करना, हृदय के अंतर्तम प्रदेश में प्रविष्ट कर ईश्वर का, सत्य-का संस्पर्श प्राप्त करना, तत्व की प्रतीति करना-उपलब्धि करना, कि मैं आत्मा स्वरूप हूँ और अनन्त परमात्मा एवं उसके अनेक अच्छे अवतारों से मेरा युग-युग का अविच्छिन्न संबंध है। गिरजा, मन्दिर, मस्जिद, मत-मतान्तर विविध अनुष्ठान आदि पौधे की रक्षा के लिए लगाये गये घेरे के समान हैं।
यदि आगे बढ़ना है, आत्मिक गति करनी है तो अन्त में इस घेरे को हटाना ही पड़ेगा। धर्म न तो सिद्धाँतों की थोथी बकवास है, न मतमतान्तरों का प्रतिपादन और खण्डन है और न ही बौद्धिक सहमति है। इसी प्रकार धर्म न तो शब्द होता है, न नाम और सम्प्रदाय, वरन् इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति।
जिन्हें अनुभव हुआ वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्म लाभ कर लिया है वे ही मनुष्य जाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं वे ही ज्योति की शक्ति हैं। धर्म के नाम पर होने वाले सभी प्रकार के झगड़े-झंझटों से केवल यही प्रकट होता है कि आध्यात्मिकता का मर्म समझ में आया नहीं है।
0 टिप्पणियाँ