कोई भी शुभ काम दिखावे के लिए न करें ~ Don't do any good work just to show off ~ Motivation

 कोई भी शुभ काम दिखावे के लिए न करें

प्राचीन काल में लोग शुभ कार्य अधिक किया करते थे |

वर्तमान में शुभ कार्यों की प्रवृत्ति ही कम होती जा रही है।

और जो थोड़ी सी शुभ प्रवृत्तियाँ बची है |

उनमें भी एक बड़ी खराबी घुस गई है।

दिखावे की।

तुम काम थोड़ा करते हो, पर दिखावा ज्यादा करते है |

तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी प्रशंसा करें।

यह बहुत गलत आदत हे इस बात को जान लो |

तुम्हारी हृदय की प्रेरणा वहाँ काम नहीं करती है |

इससे उसके फल में कमी होना स्वाभाविक है|

तुम्हारा जीवन दिनों दिन नकली-सा बनता जा रहा है|

तुम्हारे अंदर कुछ है तो बाहर बोलना व आचरण करना उससे भिन्न है।

भावना शून्य, धर्माचरण का फल हो भी क्या सकता है?

पर आजकल धर्माचरण प्रायः दिखावे के लिए ही किया जाता है|

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अतः वास्तव में वह धर्माचरण नहीं होकर ढोंग या मायाचार है।

धर्म सदाचार अर्थात् सरलता में है।

फल अच्छा तब मिलता है, जब कोई काम मन वचन, काया की एकता के साथ किया जाता है |

पर जब बिना परिश्रम किये ही बाहरी दिखावे से वाह! वाह!! मिल जाती है|

तब तुम उसकी ओर आकर्षित होने लगते हो |

बाहर में अच्छा लगे या लोग उसे अच्छा कहें |

इसी उद्देश्य से जो शुभ प्रवृत्ति की जाती है |

उसका फल भी उतना ही मिलेगा|

लोग उसकी प्रशंसा कर दें और उसे अच्छा समझने लग जाय|

आत्मकल्याण उस प्रवृत्ति से कुछ भी नहीं हो सकता।

अपितु ढोंग या मायाचार के कारण आध्यात्मिक पतन ही होता है।

जिस प्रवृत्ति से महान् लाभ मिलने का शास्त्रों में उल्लेख है |

उन प्रवृत्तियों को करते हुए हमें उसका इच्छित परिणाम क्यों नहीं मिलता?

इस पर यदि विचार करें तो हमें स्पष्ट रूप से अपनी कमी नजर आयेगी।

फल तो भावना के अनुसार ही मिलता है।

दिखावे के लिए की जाने वाली क्रियाओं का फल,

शास्त्रं में वर्णित महान् लाभ जितना कैसे मिल सकता है?

बाह्य आडम्बरों से आन्तरिक शुद्धि हो ही नहीं सकती।

गीता का कर्मयोग तो यह शिक्षा देता है कि

जब तक शरीर आदि से संबंध है

तब तक कुछ न कुछ प्रवृत्तियाँ तो करनी ही पड़ेगी,

पर इसमें कार्य करने का अभिमान और फल की आसक्ति न रखी जाए।

पर तुम्हारे प्रत्येक प्रवृत्ति फल की कामना से ही होती है।

थोड़ा-सा काम करके अधिक लाभ मिले, यही तुम्हारी इच्छा रहती है।

काम और यश की कामना तो वर्तमान में बहुत ही बढ़ गई है।

दान को ही लीजिए।

जहाँ तुम्हारा थोड़ा-सा नाम या यश होता हो |

उसके लिये तो लंबी रकम देने में भी संकोच नहीं करते हो |

पर ऐसे किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए आज चन्दा मिलना मुश्किल हो गया है|

जिसमें व्यक्ति का नाम या यश न होता हो।

गुप्त दान आज कितने लोग करते हैं ?

यह हम से छिपा नहीं है। जो कोई गुप्त दान करते हैं|

वे भी बहुत बार तो मन ही मन कीर्ति की कामना करते नजर आते है।

करुणा, वृत्ति, उदारता एवं अन्तः प्रेरणा पूर्वक,

थोड़ा भी किया हुआ दान, महान् लाभ का कारण होता है।

पर आज का अधिकांश दान, कार्य की महत्ता पर विचार न करते हुए|

दूसरों के दबाव से दिखावे के लिए ही किया जाता है।

तुम्हारे व्यवहार में भी इस दिखावे का बहुत अधिक प्रभाव दिखाई देता है।

आत्मीयता का गहरा प्रेम संबंध, जैसा पुराने व्यक्तियों में देखने को मिलता था|

आज वह स्वप्न-सा हो गया है।

दो आदमी मिलते है तो केवल शिष्टाचार के नाते एक दूसरे से नमस्कार करते है |

मित्रता व प्रेम की लंबी चौड़ी बातें की जाती है,

पर वह हैं सब दिखावे मात्र की, अन्त आत्मा को टटोलेंगे तो यही मालूम देगा।

जिन व्यक्तियों के पास कुछ पूँजी नहीं है

वे भी बाहरी टीपटाप द्वारा अपने को बहुत धनवान् दिखाने का प्रयत्न करते हैं।

कपड़ों की सफाई तो बहुत अधिक दिखाई देती है पर मन में तो मैल भरा पड़ा है।

बातों में शूर वीरता है पर हृदय में कायरता होती है।

लंबे, तिलक, हाथ में माला और मुख में राम जपते-जपते हुए

भक्त या धर्मात्मा होने का दिखावा किया जाता है

पर हृदय में भक्ति और धर्म नहीं होता।

इसलिए आजकल लोगों की भक्ति, धर्म के प्रति श्रद्धा कम होती चली जा रही है।

आत्मोत्थान के लिए सबसे पहली और जरूरी बात है कि कपट को दूर किया जाय।

सरलता और सादगी को अपनाया जाय।

अपने दोषों को छिपाने का प्रयत्न न हो, गुणों का प्रदर्शन न किया जाय।

हम जिस स्थिति में हैं उसी के अनुसार हमारा बाहर और भीतर एक सा हो।

केवल दिखावे के लिए कुछ न कर अन्तः प्रेरणा से ही किया जाए।

आज हमारे जीवन में जो नकलीपन बढ़ रहा है उसे रोका जाय।

हम जो भी काम करें वह हृदय या अन्त-प्रेरणा से ही करे, दिखावे के लिए नहीं

भोले भाले लोग उसके चक्कर में फँस जाते है।

जैसे पैसे का प्रेम बनावटी दिखाऊ होता है।

वैसे ही तुम धार्मिक एवं व्यवहारिक वृत्तियाँ दूसरे को ठगने या अच्छी लगने के लिए करते हैं |

इससे चित्त शुद्धि नहीं होती अपितु चित्त दूषित और मलिन होता है|

अतः उसका परिणाम शुभ नहीं हो सकता।

व्यवहार में शिष्टाचार का पालन करना पड़ता है वह अलग बात है

पर परमार्थिक वृत्तियाँ केवल दिखाने के लिए नहीं करनी चाहिए।

 

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