स्वयं को दुर्भाग्य ग्रस्त न माने ~ Don't Consider Yourself Unlucky ~ Motivation

 स्वयं को दुर्भाग्य ग्रस्त न माने ~ Don't Consider Yourself Unlucky

क्या आप स्वयं को दुर्भाग्य ग्रस्त मानने लगे हो |

तुम कभी भी ऐसा मत सोचो |

यदि तुम अपने दृष्टिकोण को बदल लो तो सब कुछ बदल सकता है |

इस बात को याद रखो |

अन्धकार कितना ही विस्तृत क्यों न हो,

पर वह प्रकाश से अधिक मात्रा में नहीं हो सकता।

संसार में अशुभ कितना ही क्यों न हो,

पर वह शुभ से अधिक नहीं है।

यदि ऐसा न होता तो आत्मा इस संसार में आने और रहने की इच्छा न करती।

कठिनाई अपना दृष्टिकोण उलझा लेने भर की है

और वह ऐसा नहीं है जिसे सुधारा-बदला न जा सके।

प्रकृति के नियमों में एक रहस्य बड़ा ही विचित्र, अद्भुत एवं रहस्यपूर्ण है।

हर विपत्ति के बाद उसकी विरोधी सुविधा भी प्राप्त होती है।

जब मनुष्य बीमारी से उठता है तो बड़े जोरों की भूख लगती है,

निरोगता शक्ति बड़ी तीव्रता से जागृत होती है

और जितनी थकान बीमारी के दिनों आई थी

 

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 वह तेजी के साथ पूरी हो जाती है।

ग्रीष्म की जलन को चुनौती देती हुई वर्षा की मेघ मालायें आती हैं

और धरती को शीतल, शान्तिमय हरियाली से ढक देती हैं।

 हाथ-पैरों को अकड़ा देने वाली ठण्ड जब उग्र रूप से अपना जौहर दिखा चुकती है

तो उसकी प्रतिक्रिया से एक ऐसा मौसम आता है

जिसके द्वारा यह शीत सर्वथा नष्ट हो जाता है।

रात्रि के बाद दिन का आना सुनिश्चित है,

अन्धकार के बाद प्रकाश का दर्शन भी अवश्य ही होता है।

मृत्यु के बाद जन्म भी होता ही है।

रोग, घाटा, शोक आदि विपत्तियां चिरस्थायी नहीं हैं,

वे आंधी की तरह आती हैं और तूफान की तरह चली जाती हैं।

उनके चले जाने के पश्चात एक दैवी प्रतिक्रिया होती है,

जिसके द्वारा उस क्षति की पूर्ति के लिए ऐसा विचित्र मार्ग निकल आता है,

जिस बड़ी तेजी से उस क्षति की किसी न किसी प्रकार पूर्ति हो जाती है

जो आपत्ति के कारण हुई थी।

दुर्भाग्य का रोना रोने से,

अपने भाग्य को कोसने से,

मन में एक प्रकार की आत्महीनता का भाव उत्पन्न होता है।

मेरे ऊपर ईश्वर का कोप है,

देवता रूठ गये हैं,

भाग्य फूट गया है—

इस प्रकार का भाव मन में आने से मस्तिष्क की शिरायें शिथिल हो जाती हैं।

शरीर की नाड़ियां ढीली पड़ जाती हैं,

आशा और प्रसन्नता की कमी के कारण नेत्रों की चमक मन्द पड़ जाती है।

निराश व्यक्ति चाहे किसी भी आयु का क्यों न हो

उसमें बूढ़ों के से लक्षण प्रकट होने लगते हैं,

मुंह लटक जाता है, चेहरे पर रूखापन और उदासी छाई रहती है,

निराशा और नीरसता उसकी हर एक चेष्टा से टपकती है।

इससे तुम अपने शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को नष्ट कर देते हो |

मैं पहले इतनी अच्छी दशा में था,

अब इतनी खराब दशा में आ गया’

यह सोचकर रोते रहना कोई लाभदायक तरीका नहीं।

इससे लाभ कुछ नहीं होता, हानि अधिक होती है।

जो व्यक्ति अपने आपको दुर्भाग्यग्रस्त मान लेते हैं,

उनमें मानसिक शिथिलता भी आ जाती है।

जिसके कारण मस्तिष्क कुछ ही दिन में अपना काम छोड़ बैठता है,

उसकी क्रियाशक्ति लुप्त हो जाती है।

कहते हैं कि विपत्ति अकेली नहीं आती,

वह अपने साथ और भी अनेक विपत्तियों का जंजाल लाती है।

एक के बाद दूसरी आपत्ति सिर पर चढ़ती है—यह बात असत्य नहीं है।

निर्बल एवं अव्यवस्थिति-मनोस्थिति का होना—मानो विपत्तियों को खुला निमन्त्रण देना है,

मरे हुए पशु की लाश पड़ी देखकर

दूर आकाश में उड़ते हुए चील-कौवे

उसके ऊपर टूट पड़ते हैं।

इसी प्रकार निराशा से मनुष्य पर आपत्ति और कष्टों के चील-कौए टूट पड़ते हैं

और इस उक्ति को चरितार्थ करते हैं कि विपत्ति अकेली नहीं आती।

प्रतिकूलतायें आती हैं, जाती हैं।

उनसे न घबराकर सामंजस्यपूर्ण जीवन जीना ही बुद्धिमत्ता है।

कठिनाइयों से प्रतिकूलताओं से घिरे होने पर भी

जीवन का वास्तविक प्रयोजन समझने वाले व्यक्ति

कभी निराश नहीं होते,

वे हर प्रकार की परिस्थितियों में अपने लक्ष्य से ही प्रेरणा प्राप्त करते

तथा श्रेष्ठता के पथ पर क्रमशः आगे बढ़ते जाते हैं।

वे संसार को संतुलित दृष्टि से देखते हैं

व जीवन नौका खेते हुए इस सागर को पार कर जाते हैं।

यदि अपना चुनाव अशुभ के पक्ष में हो तो असंख्य लोगों में से असंख्यों प्रकार की बुराइयां दीख पड़ेगी।

अपने साथ किसने क्या और कैसा दुर्व्यवहार किया है?

 यदि इसकी स्मृति दौड़ाई जाय तो प्रतीत होगा कि

संसार में दानव स्तर के लोग ही रहते हैं

और अनीतिपूर्ण अनाचार करने में ही निरत रहते हैं।

इसके विपरीत एक दूसरा दृष्टिकोण भी है,

उसके अनुरूप अपनी दृष्टि बदल लेने पर समूचा दृश्य ही बदल जाता है

और सुन्दरता, सज्जनता एवं सदाशयता का माहौल इतना बड़ा दीखता है

जिसे देखते हुए लगता है कि भलाई की भी कहीं कमी नहीं।

ईश्वर ने ऐसी अद्भुत विशेषताओं वाला शरीर दिया,

साथ ही जादू की पिटारी जैसा मनःसंस्थान भी।

अभिभावकों और कुटुम्बियों की दुलार भरी उदारता की

एक-एक घटना का स्मरण किया जाय

तो प्रतीत होगा कि वे औरों के लिए कैसे भी क्यों न हों,

अपने लिए तो देवता तुल्य ही रहे हैं।

मित्र, सहपाठियों का स्नेह-सौजन्य, अध्यापकों का ज्ञानदान ऐसे पक्ष हैं

जिनकी उपलब्धि बिना वह स्थिति न आ पाती जो आज है।

पत्नी का सौजन्य और सेवाभाव यदि उदार दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि

वह किसी भी प्रकार ऐसा नहीं है जिसे देवोपम न माना जाय।

समाज का ऐसा सुगठन है जिसमें आजीविका के साधन सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।

दैनिक उपयोग की इतनी, इतने प्रकार की वस्तुयें मिलती रहती हैं

जिनके सहारे प्रसन्नता और तृप्ति ही मिलती रहती है।

चरित्रवान की खोज की जाय तो उनकी गाथाओं से इतिहास भरा पड़ा मिलेगा।

आज भी उनकी कमी नहीं है, संख्या भले ही कम हो

और वे निकट नहीं दूर रहते हों,

किन्तु उनका अस्तित्व इतना अवश्य है कि प्रसन्नता व्यक्त की जा सके

और सन्तोष की सांस ली जा सके।

तथ्य एक ही है कि अपना दृष्टिकोण किस स्तर का है?

उद्यान में भौंरे को सुगन्ध की मस्ती और मधुमक्खियों को शहद की मंजूषाएं लटकती दीखती हैं,

पर गुबरीला कीड़ा पौधों की जड़ों में लगे हुए सड़े गोबर तक जा पहुंचता है

और सर्वत्र दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध पाता है।

दुष्टता की उपेक्षा की जाय या उसे सहते रहा जाय,

बढ़ने दिया जाय—यह कोई नहीं कहता।

उन्हें सुधारने-बदलने के लिए भी भरपूर प्रयास करना चाहिए,

पर इसमें खीजने की, असन्तुलित होने की आवश्यकता नहीं है।

प्रेम-सौजन्य से काम न चलता हो

तो आवश्यकतानुसार दण्ड नीति भी अपनाई जा सकती है

और प्रताड़ना का प्रयोग भी किया जा सकता है,

पर इसमें भी अपनी सुधार परायण सज्जनता की भाव संवेदना का ही अनुभव प्रयुक्त किया जा सकता है।

स्मरण रखने योग्य यह है कि अन्धकार कितना ही विस्तृत क्यों न हो,

पर वह प्रकाश से अधिक मात्रा में नहीं हो सकता।

संसार में अशुभ कितना ही क्यों न हो, पर वह शुभ से अधिक नहीं है।

 गन्दगी और स्वच्छता का अनुपात लगाया जाय तो स्वच्छता ही अधिक मिलेगी।

 यदि ऐसा न होता तो आत्मा इस संसार में आने और रहने की इच्छा न करती।

कठिनाई अपना दृष्टिकोण उलझा लेने भर की है

और वह ऐसा नहीं है जिसे सुधारा-बदला न जा सके।

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